जम्मू-कश्मीर मं मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला अपनी गिरती साख को बचाने के लिए वोट राजनीति का खेल खेलते हुए राष्ट्रहित को दांव पर लगाने पर आमादा है और अपनी चुनावी वादा पूरा करने के नाम पर कश्मीर घाटी से सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम हटवाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। इस अधिनियम से प्रभावित कुछ क्षेत्रों को उन्होंने अशांत क्षेत्र के दारये रसे बाहर लाने और वहां से विशेषाधिकार अधिनियम हटवाने की फिर से घोषणा की है। इसका सीधा अर्थ है कि वे अलगाववादियों के आगे घटुने टेकते हुए जिहादी आतंकवाद के खतरे की अनदेखी कर रहे है। राज्य में जिहादी आतंकवाद की नाक में नकेल कसने का काम को मुख्य रूप से सेना बल ही कर रहे है और इसीलिए वे जिहादी आतंकवादियों के हितैषियों व पाकिस्तान परस्त अलगाववादी नेताओं की आंखों में खटकते हैं। ये नेता गाहे-बगाहे सशस्त्र बलों व सेना को तो अमानवीय व क्रूर बताकर उनका हौवा खड़ा करते रहते हैं, जबकि नृशंस आतंकवादी घटनाओं को हमेशा नरजअंदाज करते है। उनकी नजर में सिर्फ देशद्रोहियों व भारत विरोधी आतंकवादियों के ही मानवाधिकार हैं, इनकी हैवानियत से त्रस्त कश्मीरी हिन्दुओं व बेमौत मारे जा रहे नागरिकों और उनके पीडि़त परिजनों के कोई मानवाधिकार उन्हें नहीं दिखाई देते हैं। उमर अब्दुल्ला अपने पिता व दादा की राष्ट्रघाती राजनीति विरासत को पोसते हुए सिर्फ अपनी गद्दी की चिंता में निमग्न है और राष्ट्रहित के विपरीत जाकर कभी भारत में कश्मीर के विलय पर प्रश्न उठाते हैं, तो कभी राज्य को स्वायत्ता दिए जाने व सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम समाप्त करने की मुहिम चलाते है। वे भूल जाते है कि वह भारत संघ के एक संवैधानिक दायित्व को संभालने वाले व्यक्ति है। कश्मीर उनकी जागीर नहीं है, जहां उनकी मनमानी चलेगी और वे भारत विरोधी गतिविधियों को संरक्षण देते रहेंगे।
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