मंगलवार, 27 सितंबर 2011

हिंदुओं के लिए आ रहा है काला कानून

देश पुनः विभाजन की ओर...


१९४७ में देश का विभाजन करने वाली कांग्रेस पार्टी अब फिर से देश को विभाजित करने के लिए  एक  काले कानून का मसौदा तैयार कर चुकी है । जिसका विरोध कांग्रेस को छोड़कर सभी दलों ने किया है। इस कानून में समाज को स्पष्ट रुप से दो भागों में विभाजित करने का प्रयास किया गया है जिसमें पहला समूह ईसाई मुसलमान भाषा के आधार पर अल्पसंख्यक  एवं अनुसूचित जाति एवं जनजाति है, वहीं दूसरी ओर बचे हुए हिन्दू धर्म के लोग है।  यह कानून स्पष्टत: समाज में चार प्रकार का विभाजन है। जिसमें धर्म, जाति, भाषा और वर्ग के आधार पर देश का विभाजन

आखिर इस कानून का उद्देश्य क्या है - पूर्णेंदु सक्सेना


राष्ट्रीय स्वयंसेवक  संघ छ्त्तीसगढ़ प्रांत ने केन्द्र सरकार द्वारा लाये जा रहे साम्प्रदायिक और लक्षित अधिनियम 2011 को  संवैधानिक  ढांचे के प्रतिकूल बताया है और आशंका  जताई है कि यह बहुसंख्यक  समाज को  तोडऩे तथा निष्पक्ष न्याय की हत्या करने वाला अधिनियम साबित होगा। 24 सितम्बर के  पत्रकारवार्ता में छत्तीसगढ़ प्रांत के सहप्रांत संघचालक डॉ. पूर्णेन्दु सक्सेना ने बताया कि केन्द्र सरकार की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद जिसकी  राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी है जल्द ही एक  नया कानून लाने जा रही है। जिसे साम्प्रदायिक  व लक्षित अधिनियम 2011 नाम दिया गया है। सरकार ने अब तक  इस कानून के संबंध में यह नहीं बताया है कि आखिर इसका  उद्देश्य क्या है। इसकी विभिन्न धाराओं को देखने से पता चलता है कि यह कानून समाज को स्पष्टत: दो वर्गों में विभाजित करने वाला है और बहुसंख्यक  हिन्दू समाज के लिए घातक  होगा। इसी को  ध्यान में रखते हुए  छत्तीसगढ़ के सभी जिलों में समाज के प्रतिष्ठित जाति प्रमुख एवं समाज ·के  नेताओं का एक  विशाल सम्मेलन करने जा रही है। 25 जिला ·केन्द्रों में लगभग 2500 जाति प्रमुखों, संत-समाज, युवा, मातृशक्ति एवं बुद्धिजीवी वर्गों तक  पत्रक  , सम्पर्क  व साहित्य के द्वारा इस विषय को जन-सामान्य तक  पहुंचाने का प्रयत्न किया जायेगा। यह अभियान रविवार दिनांक 25 सितंबर से जिला केन्द्रों में प्रारंभ होगा। 

समाज परिवर्तन के योद्धा- मोरोपंत जी


          राष्ट्रीय स्वयंसेवक  संघ के संस्थापक  डॉ. हेडगेवार महान युगदृष्टा थे। संघ स्थापना के  पश्चात् ‘‘याची देहि-याची डोला’’ अर्थात् अपने जीवन काल में संघ को ‘‘अखिल भारतीय संगठन’’ के स्तर पर देखना चाहते थे। अत: नि:स्वार्थ, चारित्रवान, राष्ट्रप्रेमी एवं समर्पित कार्यकर्ता अल्प समय में निर्माण कर, भिन्न-भिन्न प्रांतों में प्रचारक  के रुप में भेजते रहे। उसी क्रम में प्रथम पंक्ति के ज्येष्ठ प्रचारक श्री मोरेश्वर नीककंठ पिंगले उर्फ मोरोपंतजी अल्प आयु में संघ एवं डॉ. हेडगेवार जी के संपर्क  में आये तथा डॉ. हेडगेवारजी के  महत्वपूर्ण गुण उनमें विद्यमान थे। अत: उनके  सभी कार्य एवं योजनायें सफल सिद्ध हुई।
                   स्व.मोरोपंत जी का जन्म 30 अक्टूबर 1919 में नागपुर में हुआ। 1930 से ही संघ के संपर्क  में आये। मॉरीस कालेज नागपुर से बी.ए.की परीक्षा पास होने के पश्चात उन्होंने अपना जीवन संघ कार्य हेतु समर्पित किया तथा सन् 1941 में प्रचारक  बने। 1946 में महाराष्ट्र प्रांत के  सहप्रांत प्रचारक  का दायित्व मिला। श्री बाबा राव भिडे महाराष्ट्र प्रांत के  संघचालक  बनते समय श्री मोरोपंतजी को प्रांत प्रचारक  का दायित्व दिया गया। उनकी उत्तम लोक  संग्रह वृत्ति एवं प्रभावी कार्य शैली के  कारण उत्कृष्ठ प्रचारक  सिद्ध हुए। तत्पश्चात् अखिल भारतीय स्तर की  जिम्मेदारियां श्री मोरोपंतजी को  दी गयी। अखिल भारतीय शारीरिक  प्र्रमुख, व्यवस्था प्रमुख तथा प्रचारक  प्रमुख भी वे रहे। कुछ समय तक  सहसरकार्यवाह का दायित्व उन्हें दिया गया। अंत में केन्द्रीय कार्यकारिणी अधिकारी में आमंत्रित सदस्य के रुप में मार्गदर्शन करते रहे।
                  सन् 1981 मिनाक्षीपूरम् घटना के  पश्चात् सन् 1983 में प्रथम एकात्म यात्रा का  आयोजन हुआ। आगे बढ़ते समय सन् 1984 में विश्व में विश्व हिन्दू परिषद द्वारा चार धामों से रथ यात्रा निकालने की  योजना की  गयी तथा गंगापूजन का कार्यक्रम लिया गया। यह चार धामों से आयी रथयात्रा का मिलन नागपुर में होने की  कल्पना मूलत: श्री मोरोपंथजी की थी। वह अत्यंत कुशलता से सम्पन्न हुआ। वे राम जन्मभूमि आंदोलन के प्रमुख शिल्पकार रहे। भारतीय इतिहास पुनर्लेखन योजना के लिए उनकी  प्रेरणा प्रमुख थी। ‘‘श्री बाबासाहेब आपटे इतिहास संकलन समिति’’ की  स्थापना उन्होंने की । गुप्त सरस्वती नदी शोध का जो कार्य श्री मोरोपंतजी ने किया वह अतुलनीय था। गौहत्या प्रतिबंध, गौरक्षा, गौसंवर्धन के वह पुरस्कर्ते थे। देवलापार गोविज्ञान अनुसंधान केन्द्र की उन्होंने स्थापना की तथा कार्य को देखने वे स्वयं वहां जाकर मार्गदर्शन करते थे।
                 मोरोपंतजी के परिवार में उनके  ज्येष्ठ बन्धु गुणाकरपंत, कनिष्ठ बंधु श्री दत्तोपंत तथा भागिनी निवया खरे है। श्री मोरोपंतजी का प्रभावी व्यक्तित्व था दांव विनोदी स्वभाव के  कारण सहजता के साथ व्यक्ति को जोड़ते थे। स्वयंसेवको  के गुणों का आकलन कर तद्नुनुसार वे कार्यकर्ताओं का अलग-अलग कार्यों के लिए उनका  चयन करते थे। केवल योजना बनाकर ही नहीं, अपितु उसका क्रीयान्वयन कर तथा यशस्वी बनाने तक  उनका  संपूर्ण लक्ष्य रहता था। अत: सभी योजनाओं में उन्हें सफलता प्राप्त हुई तथा सभी क्षेत्रों में कार्य वृद्धिंगत हुआ।
                   श्री मोरोपंतजी का प्रभावी व्यक्तित्व था दांव विनोदी स्वभाव के  कारण सहजता के साथ व्यक्ति को जोड़ते थे। स्वयंसेवको  के गुणों का आकलन कर तद्नुनुसार वे कार्यकर्ताओं का अलग-अलग कार्यों के लिए उनका  चयन करते थे। केवल योजना बनाकर ही नहीं, अपितु उसका  करियान्वय कर तथा यशस्वी बनाने तक  उनका  संपूर्ण लक्ष्य रहता था। अत: सभी योजनाओं में उन्हें सफलता प्राप्त हुई तथा सभी क्षेत्रों में कार्य वृद्धिंगत हुआ।
                      श्री मोरोपंतजी पिंगले के दिनांक  29 सितंबर 2003 दिन नागपुर में देवाज्ञा हुई। ऐसे ज्येष्ठ, तेजस्वी, तपस्वी, समाज परिवर्तन के  योद्धा तथा यशस्वी कर्मवीर के दर्शन एवं मार्गदर्शन से तब से हम वान्चित रहें। किन्तु उनके  ·क्रियाशील जीवन एवं कार्यशैली से हम प्रेरणा लेकर हमारा संगठन का  कार्य शीघ्र वृद्धिंगत कर सकेगे,इसी संकल्प के  साथ उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।   


                                                         - माधव एकनाथ राजहंस
                                                          एच.आई.जी.-७७ हुडको 
                                                          आमदी नगर ,भिलाई 
                                                          रायपुर   

हिन्दू और हिन्दुस्थान


बृहस्पति आगम के  अनुसार ‘‘हिन्दू’’ शब्द का ‘‘हि’’ ‘‘हिमालय’’ से तथा ‘‘न्दु’’ ‘‘इन्दु सरोवर’’ (दक्षिण सागर) से लिया गया है। इस प्रकार यह (शब्द) हमारी मातृभूमि के  संपूर्ण विस्तार को संप्रेषित करता है। बृहस्पति आगमन का  कथन है:
हिमालय समारभ्य यावदिन्दु सरोवरम्।
तं देव निर्मित देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्ष्यते॥
(देवताओं द्वारा निर्मित वह देश जो हिमालय से प्रारंभ होकर इंदु सरोवर (अर्थात् दक्षिणी सागर) तक  फैला हुआ है, हिन्दुस्थान कहलाता है।)

‘‘हिन्दू’’ शब्द हमारे इतिहास के गत एक  सहस्र वर्षों के संकटपूर्ण काल से जुड़ा रहा है। पृथ्वीराज, गुरु गोविन्दसिंह, विद्यारण्य और शिवाजी महाराज जैसे समस्त पराक्रमी स्वतंत्रता-सेनानियों का  स्वप्न ‘‘हिन्दू-स्वराज्य’’ की स्थापना करना ही था। ‘‘हिन्दू’’ शब्द अपने साथ इन समस्त महान जीवनों, उनके  कार्यों और आकाक्षाओं की मधुर गंध से समेटे हुए हैं। इसप्रकार यह एक  ऐसा शब्द बन जाता है, जो संघ रुप से हमारी एकात्मता, औदात्य और विशेष रुप से हमारे जन-समाज को  व्यंजित करता है। कुछ लोग ऐसे भी है जो हमारे द्वारा निरंतर ‘‘हिन्दू’’ शब्द पर बल देने के  कारण हमारे दृष्टिकोण पर संकीर्ण और सांप्रदायिक होने का आरोप लगाते हैं। जब मैं एक बार पंडित नेहरु से मिला तो उन्होंने भी यही आरोप लगाया। उन्होंने कहा- ‘‘आप लोग बार-बार हिन्दू-हिन्दू का राग क्यों अलापते रहते हो? ऐसा करके आप स्वयं को केवल अपनी ही चारदीवारी में बंद कर लेते हो और बाह्य विश्व की ताजा हवा के झरोको  को  अंदर आने से रोक  देते हो। बाह्य विश्व से हमें अलग कर देने वाली कोई भी दीवार अभीष्ट नहीं है। हमें इस प्रकार के सभी समयबाह्य व्यवधानों को ध्वस्त कर देना चाहिए।’’
                   पंडित नेहरु एक  महान पुरुष थे और महान भावनाओं से आविष्ट होकर बोला करते थे। मैंने शांति के साथ उत्तर दिया-‘‘मैं आपकी  इस बात से पूर्ण सहमति व्यक्त करता हू्ं कि हमें सभी दिशाओं से आने वाली शुद्ध वायु का स्वागत करना चाहिए। हमें अनेक देशों में चल रही विभिन्न विचारधाराओं के संपर्क  में आना चाहिए और उनको  समझना चाहिए, उनका  सूक्ष्म परीक्षण करके  उसमें से कुछ हमारे लिए लाभदायक  है, उसे आत्मसात करना चाहिए। परन्तु ऐसा करने के लिए क्या यह आवश्यक  है कि  हम अपने घर की दीवारों को ध्वस्त कर लें और अपनी छत को अपने सिर पर गिरा लें, तो यह ठीक  नहीं होग। इससे तो हमारी राष्ट्रीय अस्मिता समाप्त हो जायेगी।’’
              इस पर पंडित नेहरु ने कहा- ‘‘ठीक  है, मैं यह स्वीकार करता हूं कि किसी भी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संकल्पित प्रयत्नों को  करने के  लिए इसी प्रकार का दृढ़ निश्चय आवश्यक  है।’’ मैंने उनका  इस बात के  लिए धन्यवाद किया कि  उन्होंने कम से कम इतना तो स्वीकार किया।
                                                          - साभार, नित्यप्रेरणा

प्रेरक प्रसंग ‘‘स्व. सदाशिव गोविन्द कात्रे जी’’


मध्यप्रदेश गुना जिले के
गाँव अरौन में
13 नवम्बर सन् 1901 में
सम्पन्न परिवार में
एक  अद्भूत बालक  का जन्म हुआ
शिक्षा-दीक्षा
खेलते-खाते बचपन बीता
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
के स्वयंसेवक  बन
संघ कार्य में जीवन लगा
उन्तीस बरस में
घर-गृहस्थ में प्रवेश किया
रेल्वे  के नौकरी के चलते हुये भी
संघ कार्य भी नहीं छुटा
पर विपदाओं ने भी
कठिन परीक्षा ली
पत्नी-बच्ची  अल्पकाल में छोड़ चली
उनका  भी दर्द उसे सहना पड़ा
असाध्य-छुत कुष्ठ रोग जीवन को मिला
नाक कान-भवों को सिकोड़ते थे
सभी  घृणा करते थे
सायकल चलाकर जीवन संघर्ष करते थे
छत्तीसगढ़ के मिशनरी अस्पताल में
शरण लिया
वहां डॉक्टर नहीं, हैरान थे
सेवा के नाम पर
लोगों का धर्म परिवर्तन कराते थे
पर वह स्वाभिमानी
निर्बल अशक्त-असहाय होते हुये भी
कमर कस कर खड़े हो गये
असंभव को संभव करने प्रबंधको  ने
खाना-दाना, दवा-पानी सब बंद कर दिये
उसने भी अस्पताल छोड़ दिया
शिकायत किया तो भी
गुलाम मानसिकता के लोग
मिशनरियों में बढ़-चढ़ के
गुणगान करने लगे
गहरा झटका  लगा उनको
और दृढ़ संकल्प लिया गुलामी के  
इस मानसिकता को उखाड़ फेकूगा
जलते हुए दीप
प.पू. सरसंघचालक
माधवराव सदाशिव गोलवलकर जी से
सदाशिव ने आशीर्वाद लिया
फिर न रही चिन्ता –फिकर
स्वयंसेवको  का दल लेकर चल पड़े
चांपा के  पास सोंठी ग्राम में
असाध्य को  साध्य करने के लिए
भारतीय कुष्ठ निवारक  संघ
का स्थापना किया
ऐसे तो सेवा का कार्य
श्री सम्पन्न लोग ही करते है
जो स्वयं निर्बल अशक्त-असहाय है
छूत रोगों से घिरे हुये है
उन से ऐसी आशा समाज कैसे करे
हां वे हमारे आदर्श
प्रेरक  प्रसंग है
इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठभूमि में
लिखा  जायेगा उनका  नाम
स्वर्गीय सदाशिव गोविन्द कात्रेजी
स्वर्ण जयंती के अवसर पर
उस महामानव को याद करते है
तन-मन-धन
उन के श्री चरणों में अर्पण करते है
और अपना जीवन भी
धन्य समझते है।

                                                          -फकीर सिंह क्षत्री
                              ग्रा.-अर्जुनी, जि.-रायपुर 
                              छत्तीसगढ़