बृहस्पति आगम के अनुसार ‘‘हिन्दू’’ शब्द का ‘‘हि’’ ‘‘हिमालय’’ से तथा ‘‘न्दु’’ ‘‘इन्दु सरोवर’’ (दक्षिण सागर) से लिया गया है। इस प्रकार यह (शब्द) हमारी मातृभूमि के संपूर्ण विस्तार को संप्रेषित करता है। बृहस्पति आगमन का कथन है:
हिमालय समारभ्य यावदिन्दु सरोवरम्।
तं देव निर्मित देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्ष्यते॥
(देवताओं द्वारा निर्मित वह देश जो हिमालय से प्रारंभ होकर इंदु सरोवर (अर्थात् दक्षिणी सागर) तक फैला हुआ है, हिन्दुस्थान कहलाता है।)
‘‘हिन्दू’’ शब्द हमारे इतिहास के गत एक सहस्र वर्षों के संकटपूर्ण काल से जुड़ा रहा है। पृथ्वीराज, गुरु गोविन्दसिंह, विद्यारण्य और शिवाजी महाराज जैसे समस्त पराक्रमी स्वतंत्रता-सेनानियों का स्वप्न ‘‘हिन्दू-स्वराज्य’’ की स्थापना करना ही था। ‘‘हिन्दू’’ शब्द अपने साथ इन समस्त महान जीवनों, उनके कार्यों और आकाक्षाओं की मधुर गंध से समेटे हुए हैं। इसप्रकार यह एक ऐसा शब्द बन जाता है, जो संघ रुप से हमारी एकात्मता, औदात्य और विशेष रुप से हमारे जन-समाज को व्यंजित करता है। कुछ लोग ऐसे भी है जो हमारे द्वारा निरंतर ‘‘हिन्दू’’ शब्द पर बल देने के कारण हमारे दृष्टिकोण पर संकीर्ण और सांप्रदायिक होने का आरोप लगाते हैं। जब मैं एक बार पंडित नेहरु से मिला तो उन्होंने भी यही आरोप लगाया। उन्होंने कहा- ‘‘आप लोग बार-बार हिन्दू-हिन्दू का राग क्यों अलापते रहते हो? ऐसा करके आप स्वयं को केवल अपनी ही चारदीवारी में बंद कर लेते हो और बाह्य विश्व की ताजा हवा के झरोको को अंदर आने से रोक देते हो। बाह्य विश्व से हमें अलग कर देने वाली कोई भी दीवार अभीष्ट नहीं है। हमें इस प्रकार के सभी समयबाह्य व्यवधानों को ध्वस्त कर देना चाहिए।’’
पंडित नेहरु एक महान पुरुष थे और महान भावनाओं से आविष्ट होकर बोला करते थे। मैंने शांति के साथ उत्तर दिया-‘‘मैं आपकी इस बात से पूर्ण सहमति व्यक्त करता हू्ं कि हमें सभी दिशाओं से आने वाली शुद्ध वायु का स्वागत करना चाहिए। हमें अनेक देशों में चल रही विभिन्न विचारधाराओं के संपर्क में आना चाहिए और उनको समझना चाहिए, उनका सूक्ष्म परीक्षण करके उसमें से कुछ हमारे लिए लाभदायक है, उसे आत्मसात करना चाहिए। परन्तु ऐसा करने के लिए क्या यह आवश्यक है कि हम अपने घर की दीवारों को ध्वस्त कर लें और अपनी छत को अपने सिर पर गिरा लें, तो यह ठीक नहीं होग। इससे तो हमारी राष्ट्रीय अस्मिता समाप्त हो जायेगी।’’
इस पर पंडित नेहरु ने कहा- ‘‘ठीक है, मैं यह स्वीकार करता हूं कि किसी भी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संकल्पित प्रयत्नों को करने के लिए इसी प्रकार का दृढ़ निश्चय आवश्यक है।’’ मैंने उनका इस बात के लिए धन्यवाद किया कि उन्होंने कम से कम इतना तो स्वीकार किया।
- साभार, नित्यप्रेरणा
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