गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

...तो संविधान हमारी रक्षा नहीं कर सकेगी


छत्तीसगढ़ में पहली बार भिलाई स्थित पं. दीनदयाल उपाध्याय परिसर में आयोजित भव्य नाद संगम घोष शिविर के समापन के अवसर पर हजारों स्वयंसेवकों, प्रमुख नगरवासियों को संबोधित करते हुए सरसंघचालक मोहन राव भागवत ने कहा कि संसद के अंदर भले ही एक दूसरे के विरोधी रहे परन्तु समाज में, देश में एक रहना होगा नहीं तो यह संविधान भी हमारी  रक्षा नहीं कर सकती...

छत्तीसगढ़ में पहली बार नाद संगम हुआ है, वह भी सक्रांति के शुभ अवसर पर। यह वही सक्रांति पर्व है जो पूर्व वर्षों में स्वामी विवेकानंद जी के जन्म दिवस पर आता था। इस कार्यक्रम को लेकर एक स्वाभाविक प्रश्न है कि इस कार्यक्रम का प्रयोजन क्या है ? यह संगीत का कार्यक्रम है कला का कार्यक्रम है, यह संगीत के रसीक वर्ग के लिए अच्छा है। लेकिन देश की परिस्थिति से इस कार्यक्रम का क्या संबंध है ? हमें सोचना होगा देश की परिस्थिति पर नियंत्रण करने वाला कौन है ?

 स्वमी विवेकानंद का वचन है कि  तुम्ही परिस्थिति के निर्माण करता हो और तुम्ही परिर्वतन के भी नियंत्रण करता है। ना जानते हुए भी हम परिस्थिति का निर्माण करते है। परिवर्तन करते है और भुल जाते है। हममें सारा समर्थ है परन्तु जुटेगा कैसे ? उस समर्थ से रुबरु कैसे होगा ? स्वयं के जीवन का विचार या देश की जीवन का विचार करना हो सबका यही प्रयास रहता है। लेकिन आदमी बाहर देखकर डरते रहता है। उसको पता नहीं है कि बाहर का सारा नियंत्रण उसके हाथ में है।

महाभारत  युद्घ के पश्चात का एक प्रसंग सुनाते हुए श्री भागवत जी ने कहा की पाकिस्तान बार बार युद्घ करता है और युद्घ में छोटा होता चला जाता है। बाहर की परिस्थिति हमको डराता है। 
  
 हम उस पर बहुत विचार करते है। सारी परिस्थिति के जिम्मेदार हम है। नहीं तो क्या कारण है कि सीमा के बाहर हजारों किलोमीटर दूर से मुट्ठी भर आक्रमणकारी देखते ही देखते सारे विश्व को जीतकर सैकड़ो वर्ष तक राज करते है। पहले अरबो की गुलामी बाद में यूरोपियो के गुलाम थे। हम किस बात में कम थे ? हमारे पास सब कुछ था। दुनिया में हमारा देश सोने की चिडिय़ा कहलाता था। हमारे देश के शुरवीरो की गूंज पूरी दुनिया में सुनाई पड़ती थी। किसी में भी इतनी हिम्मत नही थी कि भारत पर कोई आक्रमण करे।
यह कैसे हुआ इस पर संविधान सभा में डॉ. अंबेडकर राव ने कहा है कि हमें नही भुलना चाहिए कि हमारा देश का इतिहास  ऐसा रहा कि पूरी दुनिया की कोई ताकत हमे जितने में समर्थ नही थी। आपसी झगड़े में हमने अपने देश को तश्तरी में दुश्मन को पेश किया था। हम किसी से कम नही थे। हमें कोई हरा नही सकता था।  हम आपसी मतभेद की वजह से हारे। यही कारण है कि हम आज संसद में एक दूसरे के विरोधी बने बैठे है। परन्तु यह विरोध संसद के अन्दर है। लेकिन समाज में हमें एक सुत्र में रहना होगा। सारे देश को एक रखना होगा। नहीं तो यह संविधान अभी अपनी रक्षा नहीं कर सकता। अपने देश के लिए प्रमाणीकता से निस्वार्थ बुद्घि से काम करने वाले सब महा पुरुषो की यही सीख है। हम स्वार्थी हो गये है। हम एक दूसरे का नाता भूल गये है। हम आपसी मतभेदो में उलझ गये है। उसके चलते हमारी अवनती हुई है।

स्वतंत्रता के बाद क्या हुआ ? समस्याएं बहुत है। आंदोलन बहुत हुआ। परन्तु समाधान नहीं निकलता है।  समाज के लोगों जागृत हो चुके  है। जनता उठ खड़ी होती है। लगता है सब बदल जाएगा। जयप्रकाशजी आए लगा सम्पूर्ण क्रांति हो जाएगी। परन्तु समाधान नहीं निकला।

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चल रहा है। उसको संघ का समर्थन है। इस मामले में संघ यह नहीं देखेगा कि कौन अपना है कौन पराया। संघ का कहना है कि भ्रष्टाचार के विरुद्घ कड़ा कानून बनना चाहिए। हम कहते है कि भ्रष्टाचार आया कहां से है ? और कौन भ्रष्टाचार कर रहा है? लोग कहते है कि सत्ता और नेता भ्रष्ट है।
परन्तु अपने अन्दर झांक कर देखें कि हम कैसे है? लोग कहते है कि काला धन वापस आना चाहिए। इसके लिए प्रयास करने वाले जो भी लोग है। इस प्रयास में संघ के स्वयंसेवक मदद करेगें।

संघ का प्रस्ताव भ्रष्टाचार मुक्त जीवन की दृष्टि की शिक्षा से है। यही संघ की शिक्षा है। हम कहते है कि हम हिन्दू है। हिन्दू कैसे हुए ? इस पर स्वामी विवेकानंद जी ने कहा कि हिन्दू-हिन्दू कहते हो तुम हिन्दू तब कहलाओगे जब कोई भी व्यक्ति निराश्रीत व्यक्ति के दुख का निवार्ण नहीं कर लेते है तब तक तुम हिन्दू नही कहलाओगे। हिन्दू का अर्थ ही दुसरे के सुख-दु:ख में साथ रहना है।

जैसा समाज वैसा नेता। भ्रष्टाचार अपने ही आचरण से आता है। हमारे यहां लोग उनकी पूजा करते है जिसने राज्य के लिए अपना सब कुछ ठुकरा दिया। हम राजा की पूजा नहीं करते, बल्कि समाज की सेवा करने वालों की पूजा करते है। सारी दुनियां  के हालात अच्छे नहीं है। सबकी निगाह भारत की ओर है। अमेरिका, चीन के हालात भी अच्छी नहीं है। वे भी भारत के ओर देख रहे है। आखिर क्यों हम अपने ही को भूल गये है ? इस पर उन्होंने हनुमानजी के प्रसंग सुनाते हुए कहा कि जिस प्रकार हनुमान जी अपनी शक्ति को भूल गये थे, तब जामवंत द्वारा याद दिलाने पर उन्हें अपनी शक्ति का अहसास हुआ। उसी तरह हमें भी अहसास होना चाहिए, हम वे लोग है जो कहते हैं दुनियां में सारी विविधता एक रहे, सृष्टि का शोषण न हो। सृष्टि ने हमें बहुत कुछ दिया है। जीतना उससे लिया है उससे दुगना उसे दो। भारत की यही संस्कृति है। भारत में रहने वाले यूरोप, अरब से नहीं आया है। सब यही के है। इसलिए संघ कहता है कि हम हिन्दू है। कुछ लोग जानते नहीं है। कुछ लोग जानते है, पर मानते नहीं।

रवीन्द्रनाथ जी ने कहा था कि अंग्रेजों ने हिन्दू मुस्लिम को तोडऩे के लिए बंग के  विभाजन का प्रयास किया, परन्तु लोग विरोध में खड़े हो गये। सरकार को फैसला बदलना पड़ा। भारत में सत्ता के आधार पर परिवर्तन नहीं हुआ। समाज के आधार पर परिवर्तन होता है।

भारतीय संगीत कान से मन में उतरता है और मन से आचरण में उतरता है। संगीत के स्वर सब को मील कर काम करने की प्रेरणा देते है। एक अकेले नहीं सभी साज एव ताल मिलाकर चलें। संघ यही सिखाता है। यह नाद संगम भाई-भाई है ऐसा रिश्ता हम सब के साथ जोड़ेगा। यदि जनता सोचें तो सत्ता के प्रशासन में दम नहीं होगा कि वह परिवर्तन को रोक सके। यह संघ का विचार नहीं यह भारतभूमि का विचार है।
इस कार्यक्रम के अध्यक्षता कर रही खैरागढ़ इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय की कुलपति डॉ. मांडवी सिंह ने भी सभा को संबोधित किया। समारोह का समापन नाद संगम गीत के साथ हुआ।

राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ द्वारा प्रदेश में पहली बार १२ जनवरी को आयोजित नाद संगम घोष शिविर का समापन  अनुशासनात्मक ढंग से भिलाई के पंडित दीनदायाल उपाध्याय खेल परिसर में हुआ। इस मौके पर संघ के हजारों स्वयंसेवकों के साथ भाजपा के दिग्गज नेताओं ने भी शिरकत की। संघ प्रमुख डॉ. मोहन राव भागवत ने समापन के मौके पर जनसभा को संबोधित करते हुए यह भी साफ कर दिया कि भ्रष्टाचार के विरोध में आंदोलन करने वाले हर व्यक्ति को संघ का समर्थन रहेगा।

चार दिनों चक चले इस शिविर के समापन समारोह में लोगों की भारी भीड़ उमड़ आई।
डॉ. भागवत की जनसभा के अलावा छात्रों से सीधे संवाद कार्यक्रम में भी उम्मीद से कही ज्यादा विद्यार्थियों की भीड़ सिविक सेंटर स्थित कला मंदिर में देखने को मिली। शहर में उमड़ी भीड़ को नियंत्रित करने के लिए यातायात पुलिस के अलावा शहर के सभी थानों के पुलिस बल को मोर्चा संभालना पड़ा। शिविर में वाद्ययंत्रों को बजाने के लिए पूरे प्रदेश के ७0 केंद्रों से ५२६ स्वयंसेवकों द्वारा की गई मेहनत और अभ्यास का उम्दा प्रदर्शन समारोह के दौरान नाद अभिनंदन में देखा गया। समारोह में संघ के लोगों के साथ-साथ अनुशांगिक संगठनों का उत्साह जमकर छलका।

भाजयुमों ने सुपेला चौक से खुर्सीपार चौक तक बाइक रैली निकाली। जिसमें सैकड़ों बाइकों से भाजयुमों कार्यकर्ता सभा स्थल तक पहुचें। डॉ. भागवत को सुनने दुर्ग जिले के अलावा राज्य के अन्य जिलों से भी सैकड़ों लोगों की भीड़ स्टेडियम में जमा हुई। परिसर का मैदान भी भीड़ को अपने अंदर समेट नहीं पाया। डॉ. भागवत को सुनने की उत्सुकता स्टेंडियम के बाहर सडक़ पर खड़े लोगों में भी दिखाई दी। लगभग दो घंटे तक  चले समारोह को देखने हजारों की भीड़ स्टेडियम में उमड़ गई। समारोह को देखने जितनी भीड़ स्टेडियम के भीतर थी उससे ज्यादा लोग स्टेडियम के बाहर भी डॉ. भागवत को सुनते रहे। लगभग तीन घंटे तक खुर्सीपार चौक पर गाडिय़ों की आवाजाही में भारी अवरुद्ध रही। डॉ. भागवत को सुनने के लिए पुरुषों के साथ-साथ महिलाएं भी उपस्थित हुई। समारोह में आए लोगों ने संघ के अनुशासन को अपने आप में बहुत खास बताया। दर्शकों ने यहां तक कहा कि इससे पहले इतना व्यवस्थित कार्यक्रम इस स्टेडियम में नहीं हुआ।

वितरित हुए १० हजार तिल के लड्डू

मकर संक्रांति को हुए समापन समारोह में आए लोगों को तिल का लड्डू बतौर प्रसाद के रुप में वितरित किया गया। इन लड्डूओं की खासबात यह रही की इसका संग्रहण जिले के प्रत्येक स्वयंसेवक के घर से किया गया था। जिससे सभी स्वयंसेवकों के यहां से आए तिल के लड्डूओं की मात्रा इतनी हो गई की लोगों को पूर्ण रूप से वितरित किया गया। पूरे जिले से वितरित करने के लिए लगभग १० हजार परिवार के घरों से तिल के लड्डूओं का संग्रहण किया गया था।

अनुशासन की पाठशाला

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नादसंगम घोष शिविर में मुख्य रुप से अनुशासन आकर्षण का केन्द्र बना। जो कि संघ के अलावा बाहरी लोगों के लिए भी प्रेरणा स्त्रोत रहा। एक ही गणवेश में एक ताल पर कदम से कदम मिलाकर विभिन्न वाद्य यंत्रों की प्रस्तुति स्वयंसेवकों ने दी।

पथ संचलन ने इस्पात नगरी की जनता को खास आकर्षित किया। समापन समारोह में भी स्वयंसेवकों ने अपने अनुशासन का परिचय देते हुए करीब आधें घंटे तक निर्बाध नाद अभिनंदन की प्रस्तुति दी। पूरे राज्य से आये स्वयंसवकों ने अलग-अलग वाद्य यंत्रों से उपस्थित लोगों को खासा प्रभावित किया।
खुर्सीपार स्टेडियम में समापन समारोह के कार्यक्रम में सिर्फ स्वयंसेवक और शहर के नागारिक ही नहीं बने बल्कि भाजपा के कई दिग्गज नेता समारोह स्थल पर दर्शक दीर्घा में नजर आए। पूरे आयोजन में राज्य के दिग्गजों ने संघ के अनुशासन और नाद अभिनंदन को नयनाभिराम तरीके से देखा।

सभी वर्गो को मिला मंच में स्थान

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा आयोजित नाद संगम शिविर के समापन समारोह में संघ    प्रमुख मोहन राव भागवत, डॉ. पूर्णेदु सक्सेना, सुश्री मांडवी सिंह, बिसरा राम यादव, गणेश शंकर देशपाण्डेय सहित समाज के विभिन्न लोगों को संघ के मंच पर महत्वपूर्ण स्थान मिला। मंच पर किसी धर्म विशेष के बजाय समाज के प्रत्येक वर्ग के प्रमुख लोगों को स्थान मिला। कार्यक्रम में संत महात्मा एवं समाज प्रमुख केंद्रीय एवं क्षेत्रीय अधिकारी, समाज प्रमुख एवं कलाक्षेत्र में बहुआयामी व्यक्तित्व रखने वाले लोगों को अहम स्थान मिला। जिनमें श्रीराम बालक दास जी महाराज, स्वामी युधिष्ठीर लाल, रुवार्मी इंदमावनंद, पंडित प्रेम नारायण शर्मा, श्री विजय गुरु, स्वामी परमानंद, पंडित वेदप्रकाश, संतों के खेमें में थे। केंद्रीय एवं क्षेत्रीय अधिकारियों में जगदेव राम उरांव, जगदीश, माधव सिंह, बीके नायर, एनबी लालसन, गणपत राय, विजय कुमार गुप्ता, हीरा भाई शाह  मंजीत सिंह, विपिन साहू,ध्रुव कुमार सोनी, तरुण हथेल, चतुर्भुज कुमार आर्य, विष्णु हिरवानी, मगनराम पंडा, अनूप बाइक, महेत्तराम टंडन, सूरज निर्मलकर, राजकुमार प्रजापति, ललित मिश्रा, रमेश पटाल, ईश्वर प्रसाद अग्रवाल,राजेश धुर्वे, रामगोपाल देवांगन, सुरेंद्र कश्यप, महेंच्र चंद्राकर, निरंजन नाग, हनुमान सिंह राठौर, तिलक दर्रो, बुधियार बारला, शकुन वर्मा,  विजय बघेल व मनमोहन कश्यप को स्थान मिला। कला क्षेत्र में ख्यति अर्जित करने वाले लक्ष्मण मस्तुरिया, श्रीमती रजनी रजक, सुश्री उषा बारले, श्रीमती रितु वर्मा, झामुक राम देवांगन, अर्जुन महिलांग, अंकुश देवांगन, डीएस विद्यार्थी, श्रवण चोपकर, अमर श्रीवास, प्रबंजय चतुर्वेदी, रिखीराम क्षत्री, वीके मुहम्मद, दुष्यंत हरमुख, भालचंद सेगेकर, पूनाराम साहू, कोदोराम वर्मा, बुद्घ सिंह ओदरिया, कृष्णारंजन तिवारी, कविता वासनिक व रमेश सिंह ठाकुर मंच पर बैठे।   

सरसंचालक द्वारा वरिष्ठ घोष वादकों का मार्गदर्शन


 चिंतन
 पहले मिलट्री से लेकर रचना बजाते थे। लेकिन अपने को लगा कि अपनी रचना का निर्माण कर अपनी रचना बजाने का प्रचलन हो गया है। इस लिए अब नये वादक रचना का अभ्यास कर घोष में नये रचना का वादन होने का प्रचलन हो गया। अब पुराने वरिष्ठ वादक को पुरानी रचना बजाने आता है । नये रचना का अभ्यास नही होने वादन में कठिनाई होता हैं। 

 ३ वर्ष में नागपुर में पुराने घोष वादक पुरानी रचना का वादन करते है, लेकिन नये वादक नये रचना का वादन करते है। ३ वर्ष में अधिक घोष वादक की आवश्कता होती हैं इसलिए पुराने वादकों कों भी वादन के लिए आते हैं। नये वादक को पुराना रचना का वादन नही आता तथा पुराने को नया रचना का वादन करने नहीं आता था। इसलिये पुराने वादक को नया वादको को प्रोत्साहन करना चाहिए।
बाबा श्री लोडक़र भी ऐसे वादक थे ८० वर्ष के आयु तक शंख बजाते थे। शंख का वादन करना हैं तो अधिक दम लगता हैं। इसलिए अपन स्वास्थ्य ठीक रखना पड़ता हैं। और स्वास्थ्य के ठीक रखने के लिए उचित व्यायमाम औरभोजन करना पड़ता था। अंतिम वर्ष ही शंख का वादन नही किया। सतत् अभ्यास करने से ठीक से शुध्द् वादन होता हैं। हम लोग वरिष्ठ वादक हैं नये वादक नये रचना के साथ वादन का अभ्यास कर रहे हैं अपनी पराम्परा को देखते  हुए हम है कि वादन नहीं करेगें तो भी एक बार यदि दिखाया जाये तो नये वादक चित्र देखकर सीखता है और उसे और अधिक जानकरी देकर उस वादक की गुणवत्ता की विकास करना चाहिए। पुराने वादकों का नये वादकों के साथ  अपनी गुणवत्ता का आग्रह करना चाहिए । यदि हम ने उसका प्रोत्साहन किया तो और अच्छा रहता हैं इस दृष्टि से विचार करना चाहिए की कुछ बातें समय के अनुसार बदलती रहती हैं जो बदलता है उसके साथ हो जाना चाहिए। इस प्रकार परिवर्तन को हमें सिवकार करना चाहिए और उत्कृष्ट हो इस का विचार करना नये वादकों के साथ-साथ पुराने वादकों को भी बदलना चाहिए। ब्रिटिश रचना पोकलार्ड,स्काऊट, फारवर्ड,रचना उत्कृष्टअच्छ हैं । तो घोष दल बहुत अच्छा रहा तो संख्या कम रही तो भी वादन का उद्देश्य ताल देना होगा । पूरा वादन करने में ताल मिले इसी कारण सरल रचना का निर्माण किया गया हैं । सरलता से नये वादकों को सिखाने के कारण कनार्टक प्रांत ने अपने प्रांत में ३००० घोष वादक तैयार कर लिये । हमारा कार्यक्रम संस्कार देने वाला होना चाहिए। हमारा कार्यक्रम करते चले तो मन पर भी वैसा ही प्रभाव बनता जाता हैं एक आधार पर सबको वादन करना पड़ता हैं,ताल केन्द्र में एक रहता हैं सुर से सुर का मिलन समन्वय होता हैं गति १२० कदम प्रति मिनट होता हैं तो हमारा स्वाभाव भी उसी का पालन करने का होता हैं याने एक सेंकेन्ड में एक कदम आगे बढऩा हैं। श्री गुरूजी ने कहा कि-कार्य बढाओं। इसका मतलब तरूणों  को समय देने के लिए प्रोत्सहन करना । श्री गुरूजी जो भी बात कहते थे वह हृद्य से कहते तो उसका परिणाम तरूणों के हृृदय पर हुआ कार्य वृध्द् िके लिए समय देने के लिए अनेक प्रचारक निकले। तरूणों को प्रेरणा देना और संघ कार्य का विस्तार करना। यही कार्य वरिष्ठ घोष वादकों को करना हैं कि नये वादक को तैयार करना संघ कार्य के लिए प्रोत्साहन करना। समय के साथ कार्य में होने वाले परिवर्तन को स्वीकार करना। 

 अखिल भारतीय स्तर पर १९८० में घोष टोली का निर्माण हुआ। उस समय केवल महाराष्ट,विदर्भ, कर्नाटक,यदि कुछ प्रांत में घोष दल अच्छा था इसके विस्तार केे लिए धीरे-धीरे अनेक प्रांत में प्रयास हुये वर्षो बाद आज घोष का अखिल भारतीय स्वरूप है। समय के मांग के साथ घोष में नये-नये वादय यंत्र शामिल किये गये। जैसे आनक हाथों का स्वभाव ,प्रणव-तालदेना,शंख-उत्साह दम,वंशी-स्वरों पर नियंत्रण । आदि यंत्रों को एक साथ मैदान पर वादन करना। इसे प्रगड़ीय संगीत कहते हैं।  

विश्व के हिन्दुओं का संगठन




भरतभूमि दायित्व सदासे,
करना जग का मार्ग प्रदर्शन।
संभ्रम छोड़ उठे हम अर्जुन,
योगेश्वर के अनुयायी हम॥

अपने देश के हिन्दू समाज के साथ मेरा जो भी संबंध आता है, वह अपने संघ की दृष्टि से आता है। संघ राष्ट्रीय है, वह भारत का है और यह है विश्व हिन्दू परिषद। मेरा कार्यक्षेत्र बहुत छोटा है और आप लोगों का बहुत विस्तृत। बड़े क्षेत्र में कार्य करने वालों के सामने मेरा बोलना कुछ धृष्ठता होगी। परन्तु कोई बड़ा काम भी हो तो वह अनेक छोटे-छोटे कामों के एकत्र होने से ही होता है। महासागर भी अनेक बिन्दुओं से मिलकर ही होता है। कितनी भी बड़ी बात हो, उसके अविभाज्य छोटे-छोटे अंश होते ही है।

हिन्दू समाज की संगठित शक्ति के पुनर्जागरण का अर्थात् संघकार्य करने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वह सौभाग्य इस दृष्टि से भी सराहनीय है कि समग्र विश्व के कार्य में भी मेरा योगदान है। दूसरी दृष्टि से विचार करें तो अपना हिन्दू-समाज, उसका धर्म, उसकी संस्कृति तथा परंपरा सबकी जड़ भारत ही है। इस मूल को कार्यप्रवण रखा तो उसकी शाखा-उपशाखाओं के रूप में जगत् भर फैला हुआ हिन्दू-समाज अपना जीवन सुविधा से चला सकेगा। अपने अंदर अपने जीवन-सिद्धांतों को उतार सकेगा। यदि हम लोगों ने देश में अपने स्वत: के जीवन को विस्मृत कर इस मूल को खोखला और अकार्यक्षम कर दिया, तो जगत् भर के अपने हिन्दू लोगों को एकत्र करने के उद्घोष का कोई लाभ नहीं होगा।

अपना देश बड़ा है। इसमें प्रांतवाद है। भाषाओं के कारण एक-दूसरे के साथ स्पर्धा, ईष्र्या इत्यादि चल रही है। जाति की दृष्टि से भी वह जगह संघर्ष चल रहे हैं। कोई अपने को उच्च जाति का मानता है तो कोई दूसरे को नीच जाति की दृष्टि से देखता है। दिन-प्रतिदिन भेद बढ़ते जा रहे हैं। सब प्रकार की सांप्रदायकिता का विरोध करने की घोषणा करने वाले राजनीति-धुरंधर नेता अपने स्वार्ध के लिए इन छोटे-छोटे भेदों को समाज में बढ़ा् रहे हैं। इसका परिणाम जगत् के भिन्न-भिन्न भागों में रहने वाले अपने हिन्दू समाज पर भी हुआ है। मेरे पास अनेक स्थानों से पत्र आते रहते हैं। वहां जाकर आए कुछ मित्र भी मिलते हैं। उनसे समाचार मिलता रहता है। स्पष्ट है कि अपने देश में जिस प्रकार का जीवन हम लोग चलाएंगे, उसका प्रभाव जगत में रहने वाले अपने हिन्दू बंधुओं पर पड़ेगा।

बिना कार्यक्रम कोई कार्य नहीं


हम वाद्य बजाते है। दुनिया में हम नहीं सभी लोग कुछ न कुछ बजाते है। पहले संगीत शुरु हुआ तालियों से हुआ। पहले विशिष्ट अंतर से ताली देते है। तो अच्छा लगने लगता है। अपने शरीर के अन्दर हृदय का ताल चल रहा है बिगड़ गया तो आदमी चला जाता है...

सम्पूर्ण प्रांत का पहला घोष वादको का शिविर है। स्वाभाविक वादक करने वाले सभी स्वयंसेवक आये। सीखने और करने के लिए आप पूरे शिविर में वादन की चर्चा रही थी क्या नया सीखा कार्यक्रम है। किसी कार्य करना है तो कोई न कोई कार्यक्रम करना है। कार्यक्रम बनाने से कार्य होता बिना कार्यक्रम कार्य नहीं।
कार्यक्रम ही काम हुआ या होना है। वह रहेगा ही रहेगा। बिना कार्यक्रम के कार्य नहीं होता बिना कार्यक्रम।
सायकल को आगे ले जाना है यह कार्य है। इसके लिए अनिवार्य कार्यक्रम सायकल का पैड मारने से पीछे चक्का चलने लगे तथा आगे का चक्का चलने लगे आगे हम दुर्ग तक चल सकते है। यदि सायकल स्टैण्ड पर लगाकर खुब पैडल मारे। लेकिन चक्का घुम रहा है हम दुर्ग नहीं पहुंच सकते है। क्योंकि उद्देश्य दुर्ग नहीं पहुंचा।

हम वाद्य बजाते है। दुनिया में हम नहीं सभी लोग कुछ न कुछ बजाते है। पहले संगीत शुरु हुआ तालियों से हुआ। पहले विशिष्ट अंतर से ताली देते है। तो अच्छा लगने लगता है। अपने शरीर के अन्दर हृदय का ताल चल रहा है बिगड़ गया तो आदमी चला जाता है। संगीत स्वाभाविक है। प्राचीन काल से किसी वाद्य के आधार पर, मनुष्य के स्वर के आधार पर पशु के जैसे कोयल की पंचम् स्वर है। मोर-मद का स्वर, गाय का रंभाना दोहतम स्वर है।

ताल सूर मिला हुआ संगीत यह पुराना कार्य करते है। शादी विवाह में बिगुल, बंशी बाकी वाद्य रहते है। वही वाद बजाते है हम वादक बजाते है। नागपुर में ४० गांव के बैड था। बहुत प्रसिद्ध था। शादी-विवाह में वे लोग जाते थे, शास्त्रीय गीत होते है। बजाने वाले अच्छे अफसर और जाने वाले अधिकारी थे। वह अच्छे वादन करते थे। छुट्टी रहता था संगीत में रुचि था। रोज आकर बजाते थे शादी के समय पैसा कमाने के लिए यही काम करते थेे। अच्छे ड्रेस और समय के लिए उपयोग करना यदि पैसा कमाना यदि कार्यक्रम करना पैसा मिलता है तो कार्यक्रम करते थे। अभ्यास रोज करते थे। कुछ वाद्यों को खर्च निकालने के लिए वे लोग बजाते है।

वह वादन करते है तो हम शौकिया वादन करते है क्या? एक-दो होंगे जो संगीत में रूचि होगा। हम लोग देशकार्य करने निकले है। इसलिए यह सब करते है।
भीमसेन जोशी का नाम सुना है- जब वह यादव राव जोशी आये तो तुरंत मंच से उतरे और यादव राव जोशी को प्रणाम किया। वापस जाकर पुन: गाना प्रारंभ किया। यादव राव जोशी के बारे में नागपुर में रजिस्टर्ड में लिखा है बड़े गुलाम अली खाँ - उनके सामने यादव राव जोशी का गाना हुआ। उन्होंने लिखा आने वाले दिनों में संगीत के जैसे कोई हीरा निकलता है लेकिन संघ के लिए निकले तो सब कुछ भूल गये। ४० वर्ष बाद उनका प्रवास हुआ, पुराने मित्रों से मिलने का कार्यक्रम मिला। कभी मैं गाने वाला था। जब से संघ का कार्य पकड़ा तब से संगीत मैं भूल गया हूं।
अपना कार्य आगे बढ़ाने के लिए उपयुक्त कार्यक्रम है। 

कामठी कैम्टाल कैंपस के बाहर सुनकर लिख लेते थे। आगे चलकर एक रचना सीखने के लिए १० बार जाते थे। साइकल या पैदल जाकर कम्पाउंड से जाकर सुनकर उसको लिपिबद्ध करते थे।
कर्नजोगी फिल्म में था मिलिट्री का धुन था। उस धुन को सिनेमा में जाकर सात बार सुनकर उसको लिखा गया। इतना परिश्रम किया जाता था। पुलिस और मिलिट्री के लोगो से सीखा गया। शुरु में एक ईसाई प्रशिक्षक से भी धुन और उसका प्रशिक्षण उस समय के स्वयंसेवकों ने परिश्रम से सीखा।
संघ में स्वयंसेवकों ने ऐसा सीखा कि बड़े-बड़े संगीतकार ने दांत खड़े किये। कहा कि रण संगीत में आप लोगों ने जो ग्रंथ लिखे है वह आधुनिक संगीत के लिए एक नया लिपि तैयार हुआ है। बापूराव दान्ते ने लिखा, मिलिट्री के लोग देेखते है कि ये पैड वर्क करने वाले लोग नहीं है लेकिन इनका संगीत उत्कृष्ट है। इसमें कोई समझौता नहीं है। पूजा का प्रयोग उत्कृष्ट होना चाहिए। इसलिए पूजा में उपयोग होने वाला उपकरण भी स्वक्छ होना चाहिए। हम पूजा के लिए पुष्प भी स्वयं जाकर अपने हाथों से तोड़ते है। जमीन पर अथवा गंदे पुष्प को पूजा के लिए उपयोग नहीं करते। बिहार में छठ की पूजा होती है, बहुत ही कठिन पूजा है। पूजा से पूर्व एक खेत जहां पर चिडिय़ा भी चोंच न मार पाये का चयन करते है। सब रिश्तेदार उस खेत की रखवाली करते है तथा उस खेत का अन्न अलग-अलग कर किसी प्रकार से जुठन न हो। छठ पूजा के लिए बिना जुठन के अन्न का उपयोग होता है। घर की माताएं स्नान कर इस अन्न से सूर्य भगवान के लिए भोग बनाती है तथा कठिन व्रत का पालन करती है। जब तक सूर्य की अर्घ न दे दे तब तक ग्रहण नहीं करती। क्या यह भगवान को नहीं चलता? नहीं। पर भावना हमारी ऐसा है। समाज पुरुष राष्ट्र पुरुष का आराधना है। इसलिए संगीत शास्त्र में भी नहीं चलता। एक स्वर अलग हुआ तो पूरा बेसुरा हो जाता है। आनख का ताल कसना बराबर स्वर श्रृंग वादकों का स्वर मिलना पड़ता है। किस शंख का कितना बजाने से ठीक से स्वर निकलेगा। इसलिए पहले स्वर मिलन या ताल मिलन करते है। क्योंकि वादन उत्कृष्ट होना चाहिए। ठीक से कदम से कदम मिलाकर हमें चलना चाहिए। क्योंकि हमारा कार्य मनुष्य निर्माण का कार्य है। कार्यक्रम ढिलाढाला हुआ तो उसमें से सीख कर बनने वाला मनुष्य ढिलाढाला होगा। इसलिए कार्यक्रम व्यवस्थित, अनुशासन उत्कृष्ट होना चाहिएए। क्योंकि हम राष्ट्र पुरुष की पूजा करते है। इसलिए भी हमारा वादन उत्कृष्ट होना चाहिए। शरबत में चार चम्मच चीनी डाले और एक चम्मच करेला का रस डालते है वह भी असर करेगा। लेकिन दूध में एक बूंद नींबू रस डाले तो पूरा दूध फट जायेगा। घोष शौक में नहीं बजाते, हम संघ के लिए इसका वादन करते है। इस वादन करने के लिए जिन-जिन गुणों की आवश्यकता आवश्यक होती है इस संगीत के लिए उसका विकास भी होता है। यह सब कार्यक्रम मनुष्य निर्माण के लिए है। संघ में यह शारीरिक विभाग के अंतर्गत आता है। अपना शारीरिक विभाग मजबूत हो, इसलिए घोष को इसमें शामिल किया गया है। बौद्धिक विभाग सुनना, विचार करना, अध्ययन करना, चिंतन करना इसलिए संघ में इस विभाग का यह कार्य है। किसी के गाने से भीड़ हो जाती है यदि कोई बेसुरा हो तो भीड़ भी भाग जाती है। 

दो बातें अनिवार्य है- समरसता और समन्वय। 

अलग-अलग भाषा विचार, व्यवहार का समन्वय है। यही संघ है। पूरे देश में लोग रहने वाले उनका समन्वय ही संघ में मिलता है। हम सभी लोग मिलकर घोष का वादन सभी स्वयंसेवक करते है। यह समन्वय का कार्य है। एक दूसरे के सुर मिले, सबको साथ लेकर चलना, प्रणव पर ताल मिलाना,  उसकी गति पर सभी को वादन करना पड़ता है। ताल एक स्थान पर मिलता है, आनक, वंशी और शंख सभी को अपना-अपना कार्य करना पड़ता है।

लक्ष्मण रेखा का सम्मान करें


 संपादकीय
धर्मान्तरण का निरंतर पोषित होता कार्यक्रम नासुर बन चुका है। केवल छत्तीसगढ़ ही नहीं, देश भर में धर्मान्तरण कार्य जोरों पर है यह चिंतनीय है। आजादी के समय ईसाई धर्म को मानने वाले लोगों की जनसंख्या २ प्रतिशत से भी कम थी। परन्तु आज उनकी संख्या नीत बढ़ते जा रही है। महात्मा गांधी ने भी कहा था कि सेवा भाव से कार्य करने में कोई गुनाह नहीं। परन्तु सेवा के आड़ में धर्मान्तरण करना सबसे बड़ा गुनाह है और भारत इसकी इजाजत नहीं देगी। मिशनरियों ने भी धर्मान्तरण के लिए गरीब, दलित एवं जंगलों में रहने वाले वनवासियों को चिन्हांकित किया। कई राज्य सरकारों ने इस पर कानून बनाया। परन्तु कानून को सही अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका। आज हालात यह है कि छत्तीसगढ़ में ही धर्मान्तरित लोग अपने आप को छत्तीसगढ़वासी नहीं मानते और दूसरे धर्म के लोगों से दोयम दर्जे का व्यवहार करने लग जाते है। समस्या सिर्फ गांव में ही नहीं, शहरों में भी बढ़ते जा रही है। एक ईसाई हिन्दू बस्ती के बीच में किराये के मकान में रहने आया। लोगों से संपर्क बढ़ाया, अपने घर पास्टर को बुलाकर दुआ प्रार्थना करवाया। उस दुआ प्रार्थना में हिन्दू पड़ोसियों को भी सम्मिलित करवाया। यहां से सिलसिला शुरु  हुआ हिन्दू धर्म के खिलाफ जहर उगलने का। पहले अगरबत्ती के धुएं को नुकसान बताया, फिर देवी-देवताओं के तस्वीर को हटाकर भटकने से बचने की सलाह दी। जब बात उससे नहीं बनी तो फिर उल्टे-सीधे आरोप लगाकर बदनाम करने की साजिश रचने लगे। इस प्रकार मिशनरियों के द्वारा धर्मान्तरित ईसाईयों को ऐसी ट्रेनिंग भी दी जाती है। इससे जाहिर होता है कि उनके योजना क्या है? सेवा कार्य कहीं भी किया जा सकता है। इसका मतलब यह नहीं कि सेवा कार्य की आड़ में धर्मान्तरण का जाल फैलाया जाये, भ्रमित किया जाये। केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश ने भी ईसाई संगठनों को अगाह करते हुए कहा कि नक्सली क्षेत्रों में सेवा कार्य करे, लेकिन सेवा के आड़ में धर्मान्तरण गतिविधि न चलाये। उन्हें लक्ष्मण रेखा का सम्मान करना चाहिए।