गत कुछ दिनों से रूस के टोम्स्क साइबेरिया में गीता पर प्रतिबंध लगाने की याचिका संबंधी विवाद चर्चा में है। हालांकि की याचिका खारिज हो गई, लेकिन लोगों का आक्रोश खत्म नहीं हुआ कि आखिर गीता पर प्रतिबंध की सोच किसकी है? गीता को अतिवादी या सामाजिक वैमनस्य फैलाने वाला ग्रन्थ कहना हतप्रभ करने वाला है। एक ग्रन्थ जो सिर्फ कर्म करने की बात पर जोर देता हो, धर्म की बात करता हो, असत्य पर सत्य की विजय और सिर्फ ईश्वर के ही परमसत्य होने की बात कहता हो, वह उग्र और अशांति फैलाने वाला कैसे हो सकता है?
आइए पहले गीता को जानें। विद्वान मानते हैं कि गीता वेदों और उपनिषदों का सार ग्रंथ है, जो किसी धर्म विशेष या व्यक्ति विशेष के लिए सीमित न होकर हर किसी के लिए जीवन दर्शन प्रस्तुत करता है। महाभारत के युद्घ में जब अर्जुन अपने भाइयों के विरुद्घ लडऩे की बात सोचकर युद्घ-मैदान में अत्यंत विचलित हो उठे, तब उनके सारथी बने भगवान श्रीकृष्ण ने उपदेश दिया था- क्यों व्यर्थ की चिंता करते हो? किससे व्यर्थ डरते हो? कौन तुम्हें मार सकता है? आत्मा न पैदा होती और न मरती है ।
तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो ? तुम क्या लाए थे जो तुमने खो दिया? तुमने क्या पैदा किया था, जो नाश हो गया? न तुम कुछ लेकर आए जो लिया यहीं से लिया, जो दिया यहीं पर दिया।
परिवर्तन संसार का नियम है, जिसे तुम मृत्यु समझते हो, वही तो जीवन है। एक क्षण में तुम करोड़ों के स्वामी बन जाते हो, दूसरे ही क्षण में तुम दरिद्र हो जाते हो । मेरा-तेरा, छोटा-बड़ा, अपना-पराया मन से मिटा दो, फिर सब तुम्हारा है, तुम सबके हो।
न यह शरीर तुम्हारा है, न तुम शरीर के हो । यह अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश से बना है और इसी में मिल जाएगा। परंतु आत्मा स्थिर है, फिर तुम क्या हो? उक्त सूत्र वाक्य पर हम गौर करें तो हम सभी के अंदर एक अर्जुन रहता है, असली कुरु क्षेत्र यानी युद्घभूमि भी हमारे अंदर ही है। अहंकार,लोभ, द्वेष और ईष्र्या ही हमारे असल शत्रु हैं और इन शत्रुओं को छोड़ मानवता को अपनाना ही गीता का सार है।
गीता को सिर्फ एक धार्मिक ग्रन्थ समझना बड़ी भूल होगी, क्योंकि इसमें प्रस्तुत विचार देश, काल, जाति से परे स्थितियों को विशाल, वृहद् परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करता है, किसी को उद्वेलित या आक्रोशित करने के बजाय शांत रहकर कर्म करते रहने को प्रेरित करता है। कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग की सूक्ष्म विवेचना करता यह ग्रन्थ बदलते सामाजिक परिदृश्य में तो और अधिक महत्वपूर्ण साबित हो रहा है। जब सामान्य व्यक्ति जीवन की समस्याओं और संघर्षों में ‘‘करूं या न करूं,’’ ‘‘आगे बढूं या न बढ़ूं’’ के मकडज़ाल में उलझ अपने कर्तव्यों से पलायन कर अपने कम्फर्ट जोन में जमे रहने की बात सोचता है।
यह एक ऐसा ग्रन्थ है , जिसे शांति और अहिंसा के प्रतीक महात्मा गांधी प्रेरित हुए। स्वामी विवेकानंद ने अपने शिकागो भाषण में गीता को उद्घृत किया और आज आज के सभी नामचीन प्रबंधन गुरु भी गीता से अपनी मूल मंत्र बात उठाते हैं। मेरा मानना है कि गीता के विचार का प्रसार प्रोत्साहित किया जाना है, ताकि वर्तमान जीवन में तनाव को कुछ कम किया जा सके।
गीता का मूल तत्व जीवन ज्ञान है, जीवन दर्शन है, विश्व की लगभग सभी भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है। सोवियत रूस में भी यह कोई नवीन विमोचित ग्रन्थ नहीं है, बल्कि रूस में तकरीबन २०० वर्षों से भी ज्यादा समय से गीता वहां उपलब्ध है। १७८८ में ही गीता का रूसी अनुवाद प्रकाशित हो चुका था। इस लंबे अंतराल में गीता ग्रन्थ के कारण किसी अप्रिय घटना की जानकारी तो नहीं है, तो फिर ये नया शिगूफा क्यों?
- डॉ. जया तिवारी
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