चिंतन
पहले मिलट्री से लेकर रचना बजाते थे। लेकिन अपने को लगा कि अपनी रचना का निर्माण कर अपनी रचना बजाने का प्रचलन हो गया है। इस लिए अब नये वादक रचना का अभ्यास कर घोष में नये रचना का वादन होने का प्रचलन हो गया। अब पुराने वरिष्ठ वादक को पुरानी रचना बजाने आता है । नये रचना का अभ्यास नही होने वादन में कठिनाई होता हैं।
३ वर्ष में नागपुर में पुराने घोष वादक पुरानी रचना का वादन करते है, लेकिन नये वादक नये रचना का वादन करते है। ३ वर्ष में अधिक घोष वादक की आवश्कता होती हैं इसलिए पुराने वादकों कों भी वादन के लिए आते हैं। नये वादक को पुराना रचना का वादन नही आता तथा पुराने को नया रचना का वादन करने नहीं आता था। इसलिये पुराने वादक को नया वादको को प्रोत्साहन करना चाहिए।
बाबा श्री लोडक़र भी ऐसे वादक थे ८० वर्ष के आयु तक शंख बजाते थे। शंख का वादन करना हैं तो अधिक दम लगता हैं। इसलिए अपन स्वास्थ्य ठीक रखना पड़ता हैं। और स्वास्थ्य के ठीक रखने के लिए उचित व्यायमाम औरभोजन करना पड़ता था। अंतिम वर्ष ही शंख का वादन नही किया। सतत् अभ्यास करने से ठीक से शुध्द् वादन होता हैं। हम लोग वरिष्ठ वादक हैं नये वादक नये रचना के साथ वादन का अभ्यास कर रहे हैं अपनी पराम्परा को देखते हुए हम है कि वादन नहीं करेगें तो भी एक बार यदि दिखाया जाये तो नये वादक चित्र देखकर सीखता है और उसे और अधिक जानकरी देकर उस वादक की गुणवत्ता की विकास करना चाहिए। पुराने वादकों का नये वादकों के साथ अपनी गुणवत्ता का आग्रह करना चाहिए । यदि हम ने उसका प्रोत्साहन किया तो और अच्छा रहता हैं इस दृष्टि से विचार करना चाहिए की कुछ बातें समय के अनुसार बदलती रहती हैं जो बदलता है उसके साथ हो जाना चाहिए। इस प्रकार परिवर्तन को हमें सिवकार करना चाहिए और उत्कृष्ट हो इस का विचार करना नये वादकों के साथ-साथ पुराने वादकों को भी बदलना चाहिए। ब्रिटिश रचना पोकलार्ड,स्काऊट, फारवर्ड,रचना उत्कृष्टअच्छ हैं । तो घोष दल बहुत अच्छा रहा तो संख्या कम रही तो भी वादन का उद्देश्य ताल देना होगा । पूरा वादन करने में ताल मिले इसी कारण सरल रचना का निर्माण किया गया हैं । सरलता से नये वादकों को सिखाने के कारण कनार्टक प्रांत ने अपने प्रांत में ३००० घोष वादक तैयार कर लिये । हमारा कार्यक्रम संस्कार देने वाला होना चाहिए। हमारा कार्यक्रम करते चले तो मन पर भी वैसा ही प्रभाव बनता जाता हैं एक आधार पर सबको वादन करना पड़ता हैं,ताल केन्द्र में एक रहता हैं सुर से सुर का मिलन समन्वय होता हैं गति १२० कदम प्रति मिनट होता हैं तो हमारा स्वाभाव भी उसी का पालन करने का होता हैं याने एक सेंकेन्ड में एक कदम आगे बढऩा हैं। श्री गुरूजी ने कहा कि-कार्य बढाओं। इसका मतलब तरूणों को समय देने के लिए प्रोत्सहन करना । श्री गुरूजी जो भी बात कहते थे वह हृद्य से कहते तो उसका परिणाम तरूणों के हृृदय पर हुआ कार्य वृध्द् िके लिए समय देने के लिए अनेक प्रचारक निकले। तरूणों को प्रेरणा देना और संघ कार्य का विस्तार करना। यही कार्य वरिष्ठ घोष वादकों को करना हैं कि नये वादक को तैयार करना संघ कार्य के लिए प्रोत्साहन करना। समय के साथ कार्य में होने वाले परिवर्तन को स्वीकार करना।
अखिल भारतीय स्तर पर १९८० में घोष टोली का निर्माण हुआ। उस समय केवल महाराष्ट,विदर्भ, कर्नाटक,यदि कुछ प्रांत में घोष दल अच्छा था इसके विस्तार केे लिए धीरे-धीरे अनेक प्रांत में प्रयास हुये वर्षो बाद आज घोष का अखिल भारतीय स्वरूप है। समय के मांग के साथ घोष में नये-नये वादय यंत्र शामिल किये गये। जैसे आनक हाथों का स्वभाव ,प्रणव-तालदेना,शंख-उत्साह दम,वंशी-स्वरों पर नियंत्रण । आदि यंत्रों को एक साथ मैदान पर वादन करना। इसे प्रगड़ीय संगीत कहते हैं।
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