सोमवार, 5 दिसंबर 2011

भारतमाता : जगन्माता का दैवी आविष्कार



जननी जगन्माता की, प्रख्रर मातृभूमि की।
सुप्त भावना जगाने हम चले॥
हमारे लिए यह संपूर्ण भूमि तपोभूमि है। प्राचीन साहित्य में एक उद्बोधक प्रसंग आया है। एक बार एक प्रश्न किया गया कि योग्य फल की प्राप्ति हेतु तप और यज्ञ करने के लिए कौन-सा देश शुद्ध एवं पवित्र है? चरम सत्य की अनुभूति के लिए आदर्श स्थान कौन-सा है? उत्तर दिया गया कि इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए ही स्थान उपयुक्त है, जहां कृष्णसार हिरन मिलते हैं। पशु-विज्ञान का कोई भी विद्यार्थी आप को बता सकता है कि इस विशिष्ट प्रकार का हिरन केवल हमारे देश में ही मिलता है।

हमारे देश का यह अनोखा स्वरुप प्राचीन परंपरा तक ही सीमित नहीं है। अधुनातन काल में भी नरेन्द्र (स्वामी विवेकानंद) का श्री रामकृष्ण से ऐतिहासिक मिलन का उदाहरण है। उन्होंने युवावस्था में ही, जब वे कालेज के विद्यार्थी थे, पौर्वात्य एवं पाश्चात्य दर्शनों में अवगाहन किया था, किन्तु उनकी जिज्ञासु आत्मा संतुष्ट नहीं हुई। अपने समय के अनेकों विद्वानों और पुण्य पुरुषों से मिले। वे भी उनकी आत्मा की पिपासा को शांत नहीं कर सके। उन्हें ज्ञात हुआ कि दक्षिणेश्वर मंदिर में एक परमहंस रहते हैं। वे उनके पास गए और जो प्रश्न वर्षों से उनके मस्तिष्क में मंडरा रहा था, उसे सीधे शब्दों में उनके समक्ष रख दिया-
महाशय, आपने ईश्वर को देखा है?’ एक क्षण के भी संकोच के बिना श्री रामकृष्ण परमहंस ने उत्तर दिया, ‘हां, मैं उसे ऐसे ही देखता हूं, जैसे यहां तुम्हें देख रहा हूं। मैं उसे तुम्हें भी दिखा सकता हूं। श्री रामकृष्ण ने नरेन्द्र के प्रति अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण भी की।

जैसा की हमें ज्ञात है, नरेन्द्र एक अति उच्च मेधा एवं प्रचंड इच्छाशक्ति संपन्न युवक थे। वे ऐसे नहीं थे, जिन्हें सम्मोहन द्वारा किन्हीं बातों पर अंधविश्वास करा लिया जाए, किन्तु उन्हें जब साक्षात् परमात्मा के सम्मुख खड़ा कर दिया गया, तब ईश्वर की सत्यता में विश्वास किए बिना वह नहीं रह सके। इस प्रकार की है ईश्वर भक्तों की हमारी जीवंत परंपरा, जिसने हमारे देश का नाम ईश्वरनुभूति की भूमि, धर्मभूमि एवं मोक्षभूति के रुप में सतत उन्नत रखा है।

कोई आश्चर्य नहीं की ऐसा देश, जिसकी धूलि का एक-एक कण दिव्यता से ओतप्रोत है, हमारे लिए पावनतम है, हमारी पूर्ण श्रद्धा का केन्द्र है और यह श्रद्धा की अनुभूति संपूर्ण देश के लिए है। उसके किसी एक भाग मात्र के लिए नहीं। शिव का भक्त काशी से रामेश्वरम् जाता है और विष्णु के विभिन्न आकारों एवं अवतारों का भक्त इस संपूर्ण देश की चतुर्दिक यात्रा करता है। यहि वह अद्वैतवादी है तो जगदगुरु शंकराचार्य के चारों आश्रम, जो प्रहरी के समान देश की चारों सीमाओं पर खड़े हैं, उसे चारों दिशाओं में ले जाते हैं। यहि वह शाक्त है-उस शक्ति का पुजारी जो विश्व की दिव्य मां है, तो उसकी तीर्थयात्रा के लिए बावन स्थान हैं, जो बलूचिस्तान में हिंगलाज से असम में कामाक्षीपर्यंत और हिमाचल प्रदेश में ज्वालामुखी से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक फैले हुए हैं। इसका यही अर्थ है कि यह देश विश्व की जननी का दिव्य एवं व्यक्त स्वरुप है।   

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