सोमवार, 5 दिसंबर 2011

टेलीविजन के संस्कार से बढ़ते बच्चे


  
पिछले दिनों एक समाचार पढ़ा कि मुम्बई के कुछ विद्यालयों में छोटे-छोटे बच्चे एक-दूसरे का अभिवादन हाथ मिलाकर, गले लगाकर और चुम्बन लेकर भी कर रहे है। बच्चों में बढ़ती इस प्रवृत्ति से शिक्षक परेशान है। नन्हे-नन्हे बच्चे वयस्कों जैसा व्यवहार करें, तो यह पूरे समाज के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। यह भी विचार करना चाहिए कि ये बच्चे चुम्बन की ओर कैसे बढ़े? इसके लिए बहुत हद तक संयुक्त परिवार का विखण्डन जिम्मेदार है।
यह बात अब बच्चों तक ही सीमित नहीं है। टेलीविजन के प्रभाव ने पूरे घर के तानेबाने को परिवर्तित करके रख दिया है। आज हमारा उठना, बैठना, खाना-पीना और रहन-सहन पूरी तरह से टेलीविजन के प्रभाव में कैद होकर रह गया है। ऐसे में संस्कार की बातें बच्चों के बाल मन पर संस्कारों की छाप कैसे आयेगी?
इसके आगे हम विज्ञापनों की ओर जायें तो पता चलेगा कि विज्ञापन की आड़ में नारी देह का प्रदर्शन खुले आम इस प्रकार हो रहा है जैसे  हम कोई वयस्क फिल्म का दृश्य देख रहे हो। आखिर इन चैनलों को नियंत्रित करने वाली संस्था अपने दायित्वों को क्यों नहीं निभा पा रही है..?
भूमंडलीयकरण की तेज आंधी में संयुक्त परिवार उड़ गये। पारिवारिक ढांचा बिखर गया है, आपसी मेल-मिलाप छूटता जा रहा है, इन सबका सर्वाधिक प्रभाव बच्चों पर पड़ा है। नाना-नानी, दादा-दादी की गोद में किलकारियां भरता शैशव और उनकी बांहों से लिपटकर कहानियां सुनने वाला बचपन टी.वी. के सहारे विकसित हो रहा है। उदारीकरण के दौर में उपभोक्ता संस्कृति विकसित हुई है जिसके कारण आर्थिक दबाव बढ़े हैं। इन दबावों के चलते माता-पिता भी बच्चों के बचपन से अनुपस्थित होते जा रहे हैं। ऐसे में बच्चों की दुनिया टी.वी. वाडियों गेम्स आदि पर निर्भर हो जाती है। ऐसे वातावरण में बच्चों का कैसा विकास हो रहा है, इस पर सोचने को फुर्सत किसी के पास नहीं है। जहर घुल रहा है। बच्चों का कोमल मन-मस्तिष्क कच्ची मिट्टी सा होता है जैसा ढाला जाए वैसा ही बन जाता है।
अभद्रता की हदें पार करते टी.वी. कार्यक्रमों को देखते हुए ही अभिभावक फुर्सत के क्षण  बिताते हैं या यूं कहिए वे इन कार्यक्रमों के लती हो गए है। ऐसे में बच्चों से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे टी.वी. ना देखें। चिन्ता बड़ों की नहीं है, अवयस्क मस्तिष्क यानि बच्चों की है। घर के बड़े जिन अधखिले पौधों को चारदीवारी के बाहर के दुष्प्रभावो से बचाकर उनके खिलने के लिए वक्त का इंतजार करते थे, वे घर की चारदीवारी में ही समय से पहले वयस्क हो रहे हैं। अपरिपक्व, अविकसित मस्तिष्क के साथ वयस्क बनने की चाहत बुलंद हो रही है। बच्चों के दिमाग पर विज्ञापनों तथा टी.वी. द्वारा परोसी जा रही अश्लीलता और अभद्रता के लगातार होते हमलों के दौर में हम उनसे संस्कारित होने की अपेक्षा कैसे कर सकते है? समाज और माहौल उन्हें जो दे रहा है, वही तो वे लौटायेंगे।
दूसरे, पश्चिमी जीवनशैली को आधुनिकता का पर्याय मान लिया गया है। आधुनिक कहलाने की चाह में माता-पिता में इस अपनाने की होड़ लगी है। माता-पिता बच्चे को हाथ जोडक़र अभिवादन करने या पैर छूकर आशीर्वाद लेने के बजाए हवाई चुम्बन करना सिखाते हैं और बच्चे के ऐसा करने पर खुश होते हैं। बच्चों का बालमन चुम्बन और हवाई चुम्बन को विभाजित करती उस हल्की सी रेखा को समझ पाने में असमर्थ होता है।
सोचना अभिभावकों को है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हम अमरीकी या पश्चिमी जीवनशैली अपनाने की अंधी होड़ में आने वाली पीढ़ी का भविष्य अंधेरे में धकेल रहे है? अभी भी वक्त है भागदौड़ और आपाधापी की तेज रफ्तार जिन्दगी में से चन्द क्षण फुर्सत के इन नन्हें-मुन्नों के लिए निकालें, क्योंकि बच्चों के लिए कल महत्वपूर्ण नहीं होता, आज होता है।      

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें