भारतीय वैज्ञानिको में नोबल पुरस्कार विजेता सर सी.वी. रमन का नाम अग्रणी है, इस भारतीय सपूत का जन्म ७ नवंबर सन् १९८८ को दक्षिण भारत के एक प्रसिद्ध नगर त्रिचनापल्ली में हुआ था, उनके पिता श्री चन्द्रशेखर अय्यर भौतिक विज्ञान तथा गणित के उत्कृष्ट विद्वान थे, आपकी माता दयालु और निर्भीक स्वभाव की थी।
१४ वर्ष की अल्पायु में मद्रास विश्वविद्यालय से बी.ए. प्रथम श्रेणी में उत्र्तीण किया, उन्नीस वर्ष की अल्पायु में भारत सरकार के वित्त विभाग में डिप्टी एकाउन्टेंट जनरल नियुक्त हुए। १९०७ में भौतिक विज्ञान में एम.ए. पास किया। १९१७ में कलकत्ता विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर बन गए। रामन प्रभाव को खोजने की प्रेरणा इन्हें कैसे मिली, यह अपने-आप में एक दिलचस्प। १९२७ में प्रो. रामन अपने प्रयोगशाला में कार्य कर रहे थे, उसी समय इनका एक विद्यार्थी दौड़ते हुए आये और उन्होंने रामन को बताया कि प्रो. कोम्पटन को एक्स किरणों के प्रकीर्णन पर नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया है, यह बात सुनकर प्रो. रामन ने कहा, जिस प्रकार पदार्थ के गुजरने पर एक्स-किरणों में परिवर्तन आते हैं, क्या प्रकाश में भी उसे पारदर्शी माध्यम से गुजारने पर परिवर्तन नहीं आयेंगे ? यह विचार उनके मन-मस्तिष्क में कौंधता रहा। उन्होंने एक मर्करी आर्क से एक रंगी प्रकाश की किरण को कुछ पारदर्शी पदार्थों से गुजारकर एक साधारण स्पेक्ट्रोग्राफ पर डालकर उसका स्पेक्ट्रम लिया। कई पदार्थों से प्रकाश किरणों को गुजारने पर उन्हें स्पेक्ट्रम में कुछ नई रेखाएं प्राप्त हुई, जिन्हें रामन-लाइन कहा गया। चार माह तक अहर्निश रात-दिन कार्य करके १६ मार्च १९२८ तो ,को सर सी.वी. रमन ने रामन प्रभाव की घोषणा की। इस रामन प्रभाव पर सन् १९३० में उन्हें नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया। इन किरणंो से इस बात से पर्दा उठ जाता है कि आकाश हमें नीला क्यों दिखाई देता है ? वस्तुएं विभिन्न रंग की क्यों दिखाई देता है ? पानी में तैरने वाले हिम शैल हरे-नीले क्यों दिखाई पड़ते है ? सन् १९२४ में सर सी.वी. रमन लंदन की रायल सोसायटी के सदस्य नियुक्त हुए। रामन ने चुंबक तथा संगीत-वाद्य यंत्रों के क्षेत्र में अनेक अनुसंधान किए। बंगलौर के पास रामन रिसर्च इन्स्टीट्यूट की स्थापना की। १९७० में बंगलौर में इस महान वैज्ञानिक का देहान्त हो गया। भारत को ऐसे सपूत पर गर्व है जिसने यह सिद्ध कर दिया कि विज्ञान पर केवल पश्चिमी लोगों का ही आधिपत्य नहीं है। उनका संदेश था कि अनुसंधान कार्यों में उपकरण से कहीं अधिक महत्वपूर्ण स्वतंत्र विचार और कठिन परिश्रम है।
- प्रफुल्ल शर्मा
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