मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

जेनेटिक कोड के जनक थे डॉ. हरगोविन्द खुराना


जेनेटिक कोडिंग के जरिये पूरे विश्व को नई दिशा देने वाले नोबेल पुरस्कार विजेता भारतीय मूल के वैज्ञानिक डॉ. हरगोविन्द खुराना नहीं रहे। शरीर क्रिया विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण शोध के जरिए क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले डॉ. हरगोविन्द खुराना के प्रयासों से ही चिकित्सा विज्ञान की नई शाखा जेनेटिक (आनुवांशिक) इंजीनियरिंग की स्थापना में मदद मिली। विभाजित भारत के पंजाब प्रांत में एक साधारण परिवार में पैदा हुए डॉ. खुराना २०वीं सदी की महान वैज्ञानिक विभूतियों में से एक थे जिनके कार्यों से चिकित्सा विज्ञान क्षेत्र में काफी मदद मिली। वर्तमान समय में डीएनए से संबंधित उनके कार्यों की वजह से वह दिन करीब आ गया है जब खराब मानव उत्तकों को ठीक किया जा सकेगा या मानसिक रुप से अविकसित लोगं को सामान्य बनाया जा सकेगा। खुराना को प्रयोगशाला में पहला मानवनिर्मित जीन तैयार करने का भी श्रेय है। १९६० के दशक में उनके उल्लेखनीय कार्यों के बीच १९६८ में उन्हें चिकित्सा क्षेत्र के लिए नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। अनुवांशिक कोड की व्याख्या और प्रोटीन संश्लेषण में उसके कार्यके विश्लेषण के लिए उन्हें यह सम्मान एमडब्ल्यू न्यूरोमबर्ग और आर डब्ल्यू हाली के साथ मिला था। डीएनए जीवन का आधार होता है। प्रकृति ने सभी जीवों की कोशिकाओं में एक ऐसा कम्प्यूटर प्रोग्राम भर रखा है जो उस जीव की समस्त गतिविधियों को नियंत्रित और संचालित करता है।

डॉ. खुराना ने कृत्रिम जीन के साथ डीएनए लाइगेज का भी संश्लेषण किया जो डीएनए के विभिन्न भागों को आपस में जोड़ता है। इस तरह संश्लेषित कृत्रिम जीन आज बायोतकनीक, क्लोनिंग व नए प्रकार के पादप व जीवों को विकसित करने में प्रचुरता से उपयोग किए जा रहे हैं। खुराना ने डीएनए पर भी कार्य किया। उनके शोध कार्यों से बाद के शोधकर्ताओं और वैज्ञानिकों को भी काफी मदद मिली। खुराना का जन्म ९ जनवरी १९२२ को पंजाब (अब पाकिस्तान) के रायपुर में हुआ था। उस गांव में शिक्षा को विशेष अहमियत नहीं थी, लेकिन उनके पटवारी पिता की अपने बच्चों को पढ़ाने में विशेष दिलचस्पी थी। डीएवी हाईस्कूल मुल्तान में स्कूली शिक्षा ग्रहण करने के बाद उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय लाहौर से उच्च शिक्षा हासिल की। स्कूल के दिनों में वह अपने एक शिक्षक से काफी प्रभावित थे। १९४५ में वह सरकारी छात्रवृत्ति पर इंग्लैण्ड गए और १९४८ में लिवरपुल विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि हासिल की। इसी दौरान वह पश्चिम के प्रभाव में आए। बाद में वह भारत लौटे, लेकिन ज्यादा दिन तक नहीं रुक सके। भारत में वह उपेक्षित ही रहे, उन्होंने यह पर नौकरी भी करनी चाही और जेनेटिक पर अपने शोध को भी आगे बढ़ाने की सोची पर ये सब यहां नहीं हो पाया। सरकारी स्तर पर भी इस अद्भूत व्यक्ति को कोई सहायता नहीं दी गई। वे देश में ब्रेनड्रेन के सबसे बड़े उदाहरण हैं। निश्चित ही हमारी व्यवस्था में ऐसा कोई दोष है, जिस कारण यहां योग्यता का सही मूल्यांकन नहीं होता। दरअसल, हम योग्यता को नहीं, बल्कि निष्ठा को महत्व देते है। डॉ. खुराना की खोज मानव प्रगति की दिशा में महत्वपूर्ण शुरुआत है जिसकी समाप्ति उस स्तर पर होगी जब मनुष्य के विकलांगता व कमी के लिए उत्तरदायी जीनों को कृत्रिम अच्छे जीनों से प्रतिस्थापित कर इंटेलिजेंट महामानव बनाया जा सकेगा। उनका आरएनए संश्लेषण कृत्रिम जीवन की ओर बढ़ाया गया पहला कदम है और अब किसी साइन्स फिक्शन फिल्म की तरह मनुष्य को इंतजार है प्रयोगशाला में सृजित पहले कृत्रिम जीव का।                                   - साभार, हरिभूमि    

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें