मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

कश्मीर के हिन्दू आज भी अपने घरों से दूर




देश का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ था। अखंड भारत दो भागों में विभाजित हो गया। जब देश धर्म के आधार पर विभाजित हो ही गया तो हिन्दुस्तान में रहने वाले सभी मुसलमानों को पाकिस्तान चले जाना चाहिए था और पाकिस्तान में रहने वाले हिन्दुओं को भारत में आना था। यह बात तब भी उठी थी, देश भयंकर रक्तपात से नहा उठा था। 

उसके बाद भी बात यही नहीं रूकी। बल्कि हमारे देश के कर्णधारों ने उस समय यह भी कह दिया कि जो लोग स्वेच्छा से जाना चाहे वे जा सकते है और यहीं एक  दूसरी विभाजन की नींव पड़ गई। देश के आजाद होने के बाद हिन्दुस्तानी सोचते थे कि अब केवल हिन्दू ही हिन्दुस्तान में राज करेगा, परन्तु आज देश के आजाद होने के इतने वर्षों बाद भी  हिन्दू राष्ट्र नहीं बन पाया। आज अपने ही हिन्दू भाई अपने ही घर में बेगाने बन गये है।  

जिन मुहल्लों, नगरों, जिलों या प्रदेशों में हिन्दू अल्पसंख्यक हो गये है उन्हें घर छोड़कर जाना पड़ रहा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण जम्मू-कश्मीर है...

२६ जनवरी को भारत अपना ६२वां गणतंत्र दिवस मनाने जा रहा है लेकिन विडम्बना है कि कश्मीर के हिन्दू आज भी अपने घरों से दूर हैं और विस्थापित जीवन जीने को मजबूर हैं। केन्द्र व राज्य सरकारों की भेदभावपूर्ण नीतियों के कारण १९ जनवरी १९९० को कश्मीरी हिन्दुओं को अपने ही घरों से विस्थापित होना पड़ा।
वर्ष १९८९ से पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद द्वारा कश्मीर की सभ्यता व संस्कृति तथा सांस्कृतिक धरोहरों को कुचलने का प्रयास किया जा रहा है। कश्मीर से हिंदुओं का निर्मूलन आतंकियों तथा स्थानीय अलगाववादियों का एक प्रमुख मुद्दा रहा है, क्योंकि कश्मीरी हिन्दू अलगाववादियों की राह का सबसे बड़ा रोड़ा थे। इसी कारण शांतिप्रिय हिन्दू समुदाय आतंकियों का प्रमुख निशाना बना।
०४ जनवरी १९९० को कश्मीर के एक स्थानीय अखबार च्आफताबज् ने हिज्बुल मुजाहिदीन द्वारा जारी एक विज्ञप्ति प्रकाशित की। इसमें सभी हिंदुओं को कश्मीर छोडऩे के लिये कहा गया था। एक और स्थानीय अखबार च्अल-सफाज् में भी यही विज्ञप्ति प्रकाशित हुई। विदित हो कि हिज्बुल मुजाहिदीन का गठन जमात-ए-इस्लामी द्वारा जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी व जिहादी गतिविधियों को संचालित करने के मद्देनजर वर्ष १९८९ में हुआ।
आतंकियों के फरमान से जुड़ी खबरें प्रकाशित होने के बाद कश्मीर घाटी में अफरा-तफरी मच गयी। सड़कों पर बंदूकधारी आतंकी और कट्टरपंथी क़त्ल-ए-आम करते और भारत-विरोधी नारे लगाते खुलेआम घूमते रहे। अमन और ख़ूबसूरती की मिसाल कश्मीर घाटी जल उठी। जगह-जगह धमाके हो रहे थे, मस्जिदों से अज़ान की जगह भड़काऊ भाषण गूंज रहे थे। दीवारें पोस्टरों से भर गयीं, सभी कश्मीरी हिन्दुओं को आदेश था कि वह इस्लाम का कड़ाई से पालन करें। लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला की सरकार इस भयावह स्थिति को नियन्त्रित करने में विफल रही।
कश्मीर के मूल निवासी कश्मीरी हिन्दुओं की सभ्यता व संस्कृति लगभग पांच हजार वर्ष से भी ज्यादा पुरानी है। इनके मकानों, दुकानों तथा अन्य प्रतिष्ठानों को चिह्नित कर उस पर नोटिस चस्पा कर दिया गया। नोटिसों में लिखा था कि वे या तो २४ घंटे के भीतर कश्मीर छोड़ दें या फिर मरने के लिये तैयार रहें। आतंकियों ने कश्मीरी हिन्दुओं को प्रताडि़त करने के लिए मानवता की सारी हदें पार कर दीं। यहां तक कि अंग-विच्छेदन जैसे हृदयविदारक तरीके भी अपनाए गये। संवेदनहीनता की पराकाष्ठा यह थी कि किसी को मारने के बाद ये आतंकी जश्न मनाते थे। कई शवों का समुचित दाह-संस्कार भी नहीं करने दिया गया।
१९ जनवरी १९९० को श्री जगमोहन ने जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल का दूसरी बार पदभार संभाला। कश्मीर में व्यवस्था को बहाल करने के लिये सबसे पहले कर्फ्यू लगा दिया गया लेकिन यह भी आतंकियों को रोकने में नाकाम रहा। सारे दिन जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) और हिज्बुल मुजाहिदीन के आतंकी आम लोगों को कर्फ्यू तोड़ सड़क पर आने के लिए उकसाते रहे। विदित हो कि राज्य में १९ जनवरी से ९ अक्टूबर १९९६ तक राष्ट्रपति शासन रहा।
अन्तत: १९ जनवरी की रात निराशा और अवसाद से जूझते लाखों कश्मीरी हिन्दुओं का साहस टूट गया। उन्होंने अपनी जान बचाने के लिये अपने घर-बार तथा खेती-बाड़ी को छोड़ अपने जन्मस्थान से पलायन का निर्णय लिया। इस प्रकार लगभग ३,५०,००० कश्मीरी हिन्दू विस्थापित हो गये। इससे पहले जेकेएलएफ ने भारतीय जनता पार्टी के नेता पंडित टीकालाल टपलू की श्रीनगर में १४ सितम्बर १९८९ को दिन-दहाड़े हत्या कर दी। श्रीनगर के न्यायाधीश एन.के. गंजू की भी गोली मारकर हत्या कर दी गयी। इसके बाद करीब ३२० कश्मीरी हिन्दुओं की नृशंस हत्या कर दी गयी जिसमें महिला, पुरूष और बच्चे शामिल थे।
विस्थापन के पांच वर्ष बाद तक कश्मीरी हिंदुओं में से लगभग ५५०० लोग विभिन्न शिविरों तथा अन्य स्थानों पर काल का ग्रास बन गये। इनमें से लगभग एक हजार से ज्यादा की मृत्यु च्सनस्ट्रोकज् की वजह से हुई; क्योंकि कश्मीर की सर्द जलवायु के अभ्यस्त ये लोग देश में अन्य स्थानों पर पडऩे वाली भीषण गर्मी सहन नहीं कर सके। क़ई अन्य दुर्घटनाओं तथा हृदयाघात का शिकार हुए।
यह विडंबना ही है कि इतना सब होने के बावजूद इस घटना को लेकर शायद ही कोई रिपोर्ट दर्ज हुई हो। यदि यह घटना एक समुदाय विशेष के साथ हुई होती तो केन्द्र व राज्य सरकारें धरती-आसमान एक कर देतीं। मीडिया भी छोटी से छोटी जानकारी को बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन करता। लेकिन चूंकि पीडि़त हिंदू थे इसलिये न तो कुछ लिखा गया, न ही कहा गया। सरकारी तौर पर भी कहा गया कि कश्मीरी हिन्दुओं ने पलायन का निर्णय स्वेच्छा से लिया। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने एक सतही जांच के बाद सभी तथ्यों को ताक पर रख इस घटना को नरसंहार मानने से साफ इन्कार कर दिया। जबकि सत्यता यह थी कि सैकड़ों महिला, पुरुष और बच्चों की नृशंस हत्या हुई थी।
भारत का संविधान देश में किसी भी व्यक्ति को जाति, मजहब, भाषा और प्रांत के आधार पर विभाजित किये बिना सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार देता है। कश्मीरी पंडितों का पलायन क्या इस अधिकार का हनन नहीं है ? केवल सरकार ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर के मनवाधिकार संगठन भी इस मामले पर मौन रहे। विख्यात अंर्तराष्ट्रीय संगठनों; जैसे- एशिया वॉच, एम्नेस्टी इंटरनेशनल तथा कई अन्य संस्थाओं में इस मामले पर सुनवाई आज भी लम्बित है। उनके प्रतिनिधि अभी तक दिल्ली, जम्मू तथा भारत के अन्य राज्यों में स्थित उन विभिन्न शिविरों का दौरा नहीं कर सके हैं जहां कश्मीरी हिन्दुओं के परिवार शरणार्थियों का जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
यह भी कम चिन्ताजनक नहीं कि कश्मीरी हिन्दुओं के निष्कासन के २२ वर्षों बाद भी इनकी सुनने वाले कुछ लोग ही हैं। इन विस्थापितों की दुर्दशा का मामला राजनीतिक दलों द्वारा राष्ट्रीय मुद्दा बनाया जाना चाहिए था। लेकिन यह दुर्भाग्य ही है कि आज दलों के लिए सेल्फ रूल, स्वायत्तता और सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) हटाना ही प्रमुख मुद्दा है।

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