वृद्धावस्था उम्र का एक ऐसा पड़ाव है जो सभी के जीवन में आता है। यहां आकर मनुष्य के जिन्दगी की
सभी भेदभाव समाप्त हो जाते हैं। पुरुष, महिला, धनवान, गरीब, शिक्षित, अशिक्षित सभी के चेहरे झुर्रियों के साथ
मुरझाने लगते हैं। तरह-तरह की शारीरिक और मानसिक व्याधियां
पीड़ा देती हैं और एक स्तर पर डॉक्टर भी हाथ खड़े कर देते हैं। परिवार का आधार
शक्ति देता है, किन्तु आने वाले समय में यह सहारा भी टूटता नजर आता है, क्योंकि
बच्चों की दूसरी पीढ़ी महानगरों की भीड़ भरी जिन्दगी में अपने वृद्ध माता-पिता को
गांव से बुलाकर शहर की बस्तियों में प्रसन्नता से नहीं रख सकेगी। जनता के शहरी
पलायन और खेती के व्यवसाय के हस के साथ परिवार विघटित होंगे और इसकी सबसे अधिक कीमत में वृद्ध सम्पत्ति होंगे, जो अकेले होंगे और उन दो में से भी एक के चले जाने पर अकेली वृद्ध जिन्दगी इस विचार मात्र से नहीं मुस्करा सकेगी
कि हमारा बेटा विदेशों में लाखों कमा रहा है।
भारत में वृद्धावस्तथा की विभीषिका
पहली बार महसूस होने लगी है। शिक्षा के कारण परिवार की दूसरी पीढ़ी गांव छोड़कर
बड़े शहरों की ओर प्रयाण कर रही है और अशक्त माँ-बाप बुढ़ापे से अपनी जमींने बेचकर
अकेले जीने के लिए अभिशप्त होने जा रहे हैं। यह स्थिति अभी तो भुगतने योग्य है, किन्तु
बीस वर्ष के बाद जो दूसरी पीढ़ी आयेगी वह अपने बुजुर्गो की सेवा तो क्या उन्हें
अपने पास रखने के लिए एक
कमरा भी नहीं जुटा सकेगी। यह किसी पश्चिम का
असर नहीं है। यह तो विकास की नियति है। हमारे यहां स्थिति सबसे अधिक विषम है। क्योंकि, जनसंख्या की भीड़ के दबाव के कारण सरकार वृद्धों को वह सामाजिक सुरक्षा नहीं दे पा रही है,
जो अन्य विकसित देशों में परिवार के अभाव को
पूरा करती है। वृद्धावस्था पेंशन,
स्वास्थ्य सेवा सुविधा तथा शहर और कस्बों
में आवास की उपलब्धता वृद्ध की मूल आवश्यकताएं है। ये वृद्धाश्रम हमारे यहां नहीं के
बराबर है और जो धार्मिक
संस्थाएं इन्हें चला रही हैं, उनमें
अव्यवस्था और भ्रष्टाचार इस सीमा तक है कि वृद्ध लोग उसका संगठित मुकाबला नहीं कर
सकते। अत: वृद्धाश्रमों का निर्माण एक नई आवश्यकता है और इस आश्रम परिवार को अपना
निजी परिवार बनाना या समझना एक दूसरी स्थिति है, जो आने
वाले वर्षों में बनानी पड़ेगी। ये वृद्धाश्रम जिला और तहसील स्तरों पर बनाये जाने
चाहिए। दस हजार की पंचायत आबादी पर एक सौ वृद्धों को आवासीय सुविधा देने वाला
आश्रम महात्मा गांधी नरेगा के श्रम से प्रत्येक पंचायत
समिति में बनवाये जा सकते हैं।
पचास हजार की आबादी पर दो सौ या तीन
सौ आवासियों की सुविधा के बड़े आश्रम स्थापित किये जा सकते हैं। इनमें स्थानीय
संस्थायें, दानदाता तथा कारपोरेट जगत के लोग सहयोग कर सकते हैं। ये आश्रम
धीरे-धीरे ऐसी संस्कृति विकसित कर सकते हैं कि वृद्धजन एक नया
परिवार पाकर अपने पुराने परिवार को भूल जायें। उन्हें पेंशन की सुविधा हो और
स्वास्थ्य सेवा तथा धार्मिक और आध्यात्मिक गतिविधियों
में उन्हें सहभागिता करने का अवसर भी मिल सके। ये नई संस्थायें पश्चिम की नकल न होकर
भारतीय वृद्ध जीवन की आवश्यकताओं के अनुरूप बनाये जायें। स्वयं वृद्ध लोग अपने
दान-पुण्य से इन्हें सशक्त बना स·ते हैं। वृद्धावस्था के मुरझाते चेहरे मुस्कराहट मांग रहे हैं।
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त्रिलोकी दास खण्डेलवाल
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