सोमवार, 16 अप्रैल 2012

श्रद्धा का जागरण


भौतिक तम में भटक रहे

मानव को हम पुन: बचाए॥

और पकड़कर आत्मज्ञान के

राजमार्ग पर लाये ॥

हम लोगों ने धर्म पर श्रद्धा लगभग छोड़ दी है। पढ़ा-लिखा कहलाने वाला जो समाज है, वह तो कुछ जानता ही नहीं। मैंने एक बार एक लड़की को अपनी माँ को मम्मी कहकर पुकारते हुए सुना। मैंने कहा मिस्र देश में पुराने राजाओं की बड़ी-बड़ी कब्रें हैं। उनको पिरामिड बोलते हैं। उनमें पुराने राजाओं के शवों को मसाला भरकर सुरक्षित रखा गया है। उन मुर्दो को मम्मी बोलते हैं। तुम्हारी माँ तो जीती-जागती और प्रसन्न दिखाई दे रही है। तुम उनको मुर्दा क्यों कहती हो? इस प्रकार की कई बातें बिना सोचे-समझे ग्रहण कर, हम लोग अपनेपन को भुला रहे हैं। विश्व के अन्य हिस्सों में रहने वाले हिन्दू चाहते हैं कि वहां पूजापाठ इत्यादि होता रहे, अपने पुराने सर्वश्रेष्ठ धर्मग्रथों का वाचन-पाठन हो और लोगों को उनसे शिक्षा प्राप्त हो। परन्तु जब वह भारत की ओर देखता है तो उसे निराशा होती है। जगत् के हिन्दुओं को एकत्रित करने के लिए जब हम खड़े हुए हैं, तब स्वयं हिन्दू बनकर रहना अतीव आवश्यक है। इसके लिए प्रत्येक को हिन्दू पद्धति के अनुसार आचरण करना होगा।
यदि अपने मन में अपने परंपरागत आचारों के संबंध में उपेक्षा का विचार आ जाए, तो वह विचार जीवन की सभी बातों तक प्रवेश कर सकता है। चीन और पाकिस्तान ने हमारी भूमि हड़प ली है। परन्तु उसमें क्या है? ऐसा कहने वाले बड़ी संख्या में मिलते हैं। वह भी इसी विचार पद्धति का परिणाम है।
संगठित जीवन-निर्माण करने के लिए एक लक्ष्य, एक उपास्य, एक ध्येय की आवश्यकता है। यह उपास्य लक्ष्य कौन-सा हो, यह हमें विचार करना है। कभी-कभी चार लोग मिलकर कोई काम करते हैं। राजनीतिक दलों के भी संगठन होते हैं। किन्तु यह संगठन तात्कालिक होते हैं, स्थायी नहीं रह पाते। किसी तात्कालिक लक्ष्य को सामने रख·कर समाज को संगठित नहीं किया जा सकता।
अत: अपने अनेकविध आचार-विचार हम लोगों को बड़ी आस्था और श्रद्धा के साथ अपने जीवन में उतारने चाहिए। हमें नित्य स्मरण रहे कि हम एक अति प्राचीन महान हिन्दू समाज के अंग-प्रत्यंग हैं और उसी परंपरा को आगे बढ़ाने का दायित्व हमारे ऊपर है। इसी परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए क्षमता प्राप्त करने के लिए हम अपने आचारों-विचारों का पालन करें.

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