प्रासाद जासु नभमंडल में समाने,
प्राचीर जास् लखि लोकपह सकाने।
अत्यन्त दिव्य, दृढ़, दुर्ग विलोकि वाको,
आश्चर्ययुक्त मन मुग्ध बयो न काको?
जाकी समस्त सुनि सम्पत्ति की कहानी,
नीचो नवाय सिर देवपुरी लजानी।
ताकी अरे निपट निष्ठुर काल ऐसी,
तूने करी शठ दशा अति ही अनैसी।
प्राचीर नाहिं, नहिं दुर्ग, न शीर्षमाला,
अट्टालिकाहु नहिं हेरि परैं विशाला।
उध्वस्त जर्जरित, भग्न शरीर मेरो,
हा! हा! न जाय अब मोसन और हेरो।
अत्युच्च मन्दिर महाई जहां रहे हैं,
देखो, तहां, कबर, आज चहूं छये हैं।
अल्लाह और बिसमिल्लाह आदि बैन,
कीन्हों तहां वधिर मोहिं सुनो परैन।
बिच्छू विषाक्त अहि, मोहि सदा सतावैं।
उन्मत्त मर्कट निरन्तर ही ढहावै।
द्वै चरि चिन्ह मम जो अजहूं दिखाही,
है हैं विलीन सोउ सत्वर भूमि माही।
जाही स्थल प्रचुर हीरन सों संवारो,
सिंहासन-प्रवर राम! रहो तिहारो।
पर्णालयस्थ, तहं मस्जिदमध्य, देखी,
त्वन्मूर्ति दु:खदव मोहिन दहै विशेषी॥
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