सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

इंसानी करतूत से मचती है तबाही

श्रीलता मेनन / 
प्राचीन परंपराओं कि अनदेखी -
सिक्किम के स्थानीय निवासी लेपचा अक्सर ही पहाड़ों को काटकर बांध बनाने पर रोक या फिर इसके नियमन की मांग करते रहे हैं लेकिन उनकी इस मांग को हमेशा अनसुना कर दिया गया। अक्सर भूकंप के झटके झेलने वाले लेपचाओं की एक पसंदीदा कहावत है, 'भूकंप लोगों की जान नहीं लेता बल्कि इमारतें जान लेती हैं।' इस कहावत की सच्चाई एक बार फिर हाल ही में आए भूकंप में हुए जान-माल के नुकसान के बाद पता चली। पहाड़ों से घिरे सिक्किम के लिए भूकंप के झटके कोई बड़ी बात नहीं है।

अनुमतियों के खिलाफ आवाज
पौराणिक कथाओं और किवंदतियों पर यकीन करने वाले सिक्किम के स्थायी समुदायों में से एक लेपचा काफी अरसे से राज्य में पनबिजली परियोजनाओं को मिल रही अंधाधुंध अनुमतियों के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। ये लोग पहाड़ों में विस्फोट कर बनाई गई सुरंगों के जाल में खासतौर पर तीस्ता नदी स्थायी नुकसान पहुंचाने के खिलाफ हैं।

हालांकि नदी में पानी की कमी पारिस्थितिकीय कारणों से भी हो सकती है लेकिन जिस तरीके से इस नदी को सुरंगों में धकेला जा रहा है वह बेहद चिंताजनक बात है। इन सुरंगों को खोदने के लिए उन पहाड़ों में विस्फोट किया गया, जिन पर यह राज्य जोखिम के साथ खड़ा हुआ है। भूकंपों के लिहाज से राज्य की संवेदनशीलता किसी से छिपी नहीं है और यहां के निवासियों का कहना है हर मिनट भूकंप के झटके महसूस किए जाते हैं। यहां के निवासी पीढिय़ों से भूकंप के झटकों के साये में रहते आए हैं। लेपचा की पौराणिक कथाओं में इस पहाड़ को स्वर्ग तक ले जाने वाली सीढ़ी माना गया है। लेकिन जाहिर है कि अब लेपचाओं का यह पहाड़ वैसा नहीं रह गया है।

हाल ही में सिक्किम में आए भूकंप में 100 से भी ज्यादा लोग अपनी जान गंवा चुके हैं जबकि राज्य से जुड़े भूटान में सिर्फ एक ही व्यक्ति की मृत्यु हुई। भूटान के पहाड़ों के 75 फीसदी हिस्से में मौजूद वन्य क्षेत्र ने मिट्टी को जकड़े रखा जबकि सिक्किम के पहाड़ों की प्रत्येक चोटी पर अब वन्य क्षेत्र की जगह निर्माण कार्यस्थल देखे जा सकते हैं।

दो साल पहले राज्य सरकार ने अनशन पर बैठे अफेक्टेड सिटीजंस ऑफ तीस्ता (एसीटी) की मांगों के दबाव में करीब 29 पनबिजली परियोजनाएं रद्द की थीं। उस समय नागरिकों ने मांग की थी कि उत्तर सिक्किम में मौजूद उनकी पौराणिक जमीन जोंगु पहाड़, जो कंचनजंघा जैव-संरक्षण क्षेत्र में आता है और भूकंप के केंद्र मांगन के करीब है, के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए। लेकिन वन्य एवं पर्यावरण मंत्रालय ने इस क्षेत्र में विस्फोट रोकने या उनकी निगरानी करने की निवासियों की मांग को नजरअंदाज कर दिया।
एसीटी द्वारा वन्य एवं पर्यावरण मंत्रालय में नदी घाटी व पनबिजली परियोजनाओं के लिए बनी विशेषज्ञ समीक्षा समिति के चेयरमैन को लिखे गए पत्र में उन्होंने तीस्ता एचईपी के स्टेज 3 के लिए अतिरिक्त नियम व शर्तें लागू करने की मांग की थी। दिलचस्प है कि हाल ही में बिजली मंत्री सुशील कुमार श्ंिांदे ने इस परियोजना समेत त्रिपुरा में लगने वाली नई परियोजनाओं की काफी तारीफ की थी। शिंदे ने कहा था कि 11वीं पंचवर्षीय योजना के तहत इन परियोजनाओं की मदद से सरकार 65,000 मेगावॉट बिजली उत्पादन के लक्ष्य को हासिल करने में सफल रहेगी। तीस्ता 3 की बिजली उत्पादन क्षमता 1,200 मेगावॉट है।

एसीटी ने मंत्रालय को लिखा, 'तीस्ता ऊर्जा लिमिटेड को तीस्ता एचईपी स्टेज 3 विकसित करने के लिए पर्यावरण संबंधी स्वीकृति देते समय पर्यावरण को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थ डायनामाइट का कोई जिक्र ही नहीं किया गया है। इस कारण परियोजना स्थल पर अंधाधुंध विस्फोट किए जा रहे हैं, खासतौर पर रामन में चल रहे बांध निर्माण कार्यस्थल व इससे जुड़े अन्य निर्माण स्थलों पर। यह भी पता चला है कि पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान सुरंग खोदे जाने के कारण हो रहा है, जैसा पारंपरिक पनबिजली परियोजनाओं में नहीं किया जाता है। इससे भी गंभीर व चिंताजनक बात यह है कि अदिति 2 (तेंग) के ऊपरी इलाके में अगस्त 2002 में अभूतपूर्व भू-स्खलन और बाढ़ आई थी। इस क्षेत्र में विस्फोट होगा, तो पहले से ही अशांत इस इलाके में हालात और मुश्किल हो जाएंगे, जिनके परिणाम काफी खतरनाक हो सकते हैं।'

पत्र में लिखा गया था, 'आपसे विनम्र निवेदन है कि परियोजना स्थल पर विस्फोट के साथ नई शर्तें जोड़ी जाए, खासतौर पर पानम एचईपी स्वीकृति के लिए यह पहली और सबसे महत्त्वपूर्ण शर्त थी। इस इलाके में निर्माण स्थलों पर हो रहे सभी विस्फोट तब तक रोक दिए जाएं, जब तक एक ऐसी स्वतंत्र एजेंसी की नियुक्ति नहीं हो जाती, जो विस्फोट की तीव्रता और दबाव मापने के लिए जरूरी उपकरण लगाए। इससे नियंत्रित हालात में विस्फोट करने में मदद मिलेगी।' लेकिन इस पत्र में की गई मांग पर कोई कदम नहीं उठाया गया। दरअसल आंकड़े और जरूरतें काफी बड़ी हैं। वे यहां के पहाड़ों और निवासियों के मुकाबले काफी ज्यादा हैं। आखिरकार सरकार को पांच साल में 64,000 मेगावॉट और अगले पांच साल में 1 लाख मेगावॉट बिजली उत्पादन के लक्ष्य को हासिल जो करना है।

इंसानी जरूरत, लालच और प्रकृति के बीच की दुविधा को लेपचाओं की एक कहावत बड़े बेहतरीन ढंग से पेश करती है। कहावत है, 'जब आखिरी पेड़ काट दिया जाएगा, जब आखिरी नदी के पानी में जहर घोल दिया जाएगा और जब आखिरी मछली पकड़ ली जाएगी, तभी आपको पता चलेगा कि पैसा नहीं खाया जा सकता है।'
                                                                                         साभार -बिजनेश स्टैण्डर्ड

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