रविवार, 23 अक्तूबर 2011

अपनी मातृभूमि का विशाल चित्र ....


जिनका मुकुट हिमालय,जग जगमगा रहा है।
सागर जिसे रतन की अंजुलि चढ़ा रहा है॥

हमारे महाकाव्य तथा पुराण भी हमारी मातृभूमि की वैसी ही विशाल मूर्ति उपस्थित करते हैं। अफगानिस्तान हमारा प्राचीन उपगणस्थान है। महाभारत का शल्य वहीं का था। वर्तमान काबूल और कन्दहार, गंधार थे। कौरवों की माता गांधारी वहीं की थी। ईरान तक मूलत: आर्यभूमि ही है। इसका अंतिम राजा रजा शाह पहलवी इस्लाम से अधिक आर्य सिद्धांतों का अनुसरण करने वाला था। पारसियों का पवित्र ग्रंथ जेंदा वेस्ता बहुत कुछ ऋग्वेद है। पूर्व दिशा में बर्मा हमारा ब्रम्हदेश है। महाभारत में इरावत का उल्लेख आया है, वर्तमान इरावदी घाटी का उस महायुद्ध से संबंध था। महाभारत में असम का उल्लेख प्राग्ज्योतिष के नाम से हुआ है, क्योंकि सूर्य का प्रथमोदय वहीं होता है। दक्षिण में लंका की निकटतम सूत्र में आबद्ध है और उसे कभी भी मुख्य भूमि से भिन्न नहीं माना गया।
यह था हमारी मातृभूमि का चित्र, जिसमें हिमालय के पश्चिम में आर्यान (ईरान) तथा पूर्व में श्रृंगपूर (सिंगापुर) की ओर दो समुद्रों में अपनी दोनों भुजाओं को अवगाहित कर रहा है। साथ ही दक्षिण महासागर में उसके पवित्र चरणों पर चढ़ाई गई कमल की पंखुड़ी के समान विद्यमान है लंका (सीलोन)। मातृभूमि का यह चित्र सहस्रों वर्ष से सतत् हमारे जनमानस में देदीप्यमान है। आज भी हिन्दू प्रतिदिन स्नान करते हुए गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु और कावेरी जैसी पवित्र नदियों का आह्वान करता है -
गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिन्धु कलावेरि जलेस्मिन् सन्निधिं कुरु॥
( हे गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु तथा कावेरी! तुम्हारा जल हमारे इस स्नान के जल में सम्मिलित हो।)
यह भी भक्ति का एक पाठ है, क्योंकि इसके द्वारा हमें यह अनुभूति कराई जाती है कि इन पवित्र नदियों के एक बूंद जल में भी हमारे समस्त पापों को धो डालने की शक्ति है।
हमारी जाति के एक महानतम् व्यक्ति रामचंद्र जी थे, जिन्होंने इस जाति के चरित्र एवं संस्कृति पर एक अमिट छाप छोड़ी है। उनके महान गुण, यथा- निराकुलता, उदारचित्तता, ज्ञानगांभीर्य एवं अनुभूतियों की तुलना समुद्र की अप्रमेय गहराई तथा शांतता से की गई है और उनकी अदम्य शक्ति एवं धैर्य की तुलना महान और अजेय हिमालय से की गई है-समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्येण हिमवान इव। (वाल्मीकि रामायण, बालकांड, प्रथम सर्ग, श्लोक १७)
क्या हमें ज्ञात नहीं कि हमारी मातृभूमि एक ओर हिमालय से और शेष तीन ओर समुद्र से परिवेष्ठित है? इस प्रकार राम के आदर्श व्यक्तित्व में हमारी मातृभूमि को उसकी सम्पूर्णता में दृष्टिगत कराया गया है। अनेक प्रकार से हमारी इस समग्र अखंड मातृभूमि को पूजनीय के रुप में प्रस्तुत किया गया है। इसके खंडित होने का कोई भी विचार हमारे लिए असहाय है।

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