महर्षि अरविंद की दूरदृष्टि :-
घटना ३० दिसंबर, १९३९ कजी है। पांडिचेरी में योगी श्री अरविंद संध्याकाल अपने शिष्यों के साथ बैठे हुए थे। तभीकिसी ने नए समाचारों की चर्चा करते कहा, कुछ लोगों को वंदेमातरम् के राष्ट्रीय गान होने में आपत्ति है और कुछ कांग्रेसी उस के कुछ पदों को निकाल देने के पक्ष में है। इस पर श्री अरविंद ने टिप्पणी की, उस स्थिति में हिन्दुओं को अपनी संस्कृति छोड़ देनी चाहिए।
तब श्री अरविन्द ने समझाया, लेकिन यह धार्मिक गान नहीं है। यह एक राष्ट्रीयगान है और राष्ट्रीयता के भारतीय स्वरुप में स्वभावत: हिन्दू दृष्टि रहेगी। हिन्दू अपने भगवान की पूजा क्यों न करें? अन्यथा हिन्दुओं को या तो इस्लाम स्वीकार कर लेना चाहिए या यूरोपीय संस्कृति या फिर नास्तिक बन जाना चाहिए।
तब श्री अरविन्द की बात ही फलीभूत हुई। कम से कम पश्चिमी पंजाब और पूर्वी बंगाल में लाखों हिन्दुओं को अपनी संस्कृति और धरती या प्राण तक छोड़ देने पड़े। जो इस्लाम कबूल कर जिए, उन्होंने तो संस्कृति छोड़ी ही। किन्तु समस्या खत्म नहीं हुई। शेष बचे भारत में (जो विभाजन के तर्क से केवल हिन्दुओं का देश होना था) कुछ ही समय बाद फिर से वही आपत्तियां शुरु हो गई और फिर वही तुष्टीकरण! इस बीच कश्मीर में हिन्दुओं को अपनी संस्कृति, धरती और प्राण छोड़ देने पड़े। । असम, बंगाल, केरल आदि के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी शनै:-शनै: वही हो रहा है। इस्लामी पक्ष से आपत्ति और हिन्दू पक्ष का खात्मा, यह ऐतिहासिक प्रक्रिया लगभग सौ साल से चल रही है। इसका अंत किस प्रकार होगा।
मुसलमानों का अलग देश :-
उस समय उठे विरोध के बाद कांग्रेस ने इस गीत का केवल पहला अंश गाने का निर्णय किया, ताकि देवी-देवताओं संबंधी मुसलमानों की आपत्ति खत्म हो जाए। उस समय तक वंदे मातरम् गान अपनी तीनों अंतरों समेत पूरा गाया जाता था। किन्तु इस्लामी आपत्ति को देखते हुए इस गीत के बाद वाले दो अंतरे गाना बंद कर दिया गया। इससे मुस्लिम नेता संतुष्ट हुए। किन्तु कुछ समय बीतने के बाद कहा गया कि यह पूरा गीत ही आपत्तिजनक है। पुन: कांग्रेस द्वारा आपत्तियों को संतुष्ट करने का ही प्रयत्न किया जाता रहा। अंतत: सारी आपत्तियों का एकमुश्त हल करने हेतु मुसलमानों का अलग देश ही बना दिया गया।
टीम अण्णा, बुखारी और इतिहास का सच :-
मुस्लिम जनता तो अपने आप में हिन्दू जनता की तरह ही है। अपने अवलो·न से आश्वस्त होकर वह भी अच्छे और सच्चाई भरे लोगों, प्रयासों को समर्थन देती है बशर्ते उसके नेता इसमें बाधा न डालेंकं ( जैसा बुखारी ने अभी शुरु किया)। इसीलिए तो रामलीला मैदान और देशभर में मुस्लिम भी अण्णा के पक्ष में बोल रहे हैं। किन्तु मुस्लिम नेता दूसरी चीज होते हैं। उनके लिए इस्लाम ही सब कुछ है। वे हर चीज को इस्लामी तान पर खींचने की जिद करते हैं, और इसके लिए हर दांव लगाने से नहीं चूकते। इसलिए कई बार उनकी शिकायतें नकली होती हैं, वह किसी छिपे उद्देश्य का साधन होती है। इसी बात को न समझकर हिन्दू महानुभाव सदैव मूर्ख बनते रहे हैं। अयातुल्ला खुमैनी साहब वही कर के दिखा रहे हैं। इसलिए इस बात को दरकिनार नहीं करना चाहिए कि इस्लाम के नाम पर वंदेमातरम् गान का सदैव विरोध भी होता रहा है। इमाम बुखारी ने कोई नई बात नहीं कही। अभी दो साल पहले जमाते उलेमा ए हिन्द ने वन्देमातरम् गाने के खिलाफ फतवा दिया था। इसलिए इस पर हिन्दुओं द्वारा सफाई देना बेकार है। अण्णा के सहयोगी उसी तरह बुखारी को मनाने गए हैं, जैसे उस जमाने में गांधीजी करते थे। उसका क्या नतीजा रहा? पूरे इतिहास को याद करें।
मूर्तिपूजा और काबे को सिजदा :-
यदि स्वामी रामदेव कहते हैं कि वंदेमातरम् में मूर्तिपूजा का कर्मकांड नहीं, इसलिए मुसलमानों को विरोध नहीं करना चाहिए, तो इसका मतलब है कि वे मूर्तिपूजा को गलत मान रहे हैं। यह कौन सी बात हुई? किस आधार पर मूर्तिपूजा गलत और काबे को सिजदा करना सही है? मगर यदि आप ऐसी ही मान लेते हैं, तब तो बात बस इतनी बचती है कि इस्लाम में क्या जायज है, क्या नहीं। उसका फैसला कोई मुफ्ती या ईमाम करेंगे कि एक हिन्दू संत?
१९४७ की सीख भुला दी गई :-
दरअसल, वंदेमातरम् विरोध कोई स्वतंत्र मुद्दा नहीं। यह इस्लाम और देशप्रेम के संबंध से जुड़ा हुआ है। इस पर तरह-तरह की दलीलें जरुर रही। किन्तु इस पर मुस्लिम चिंतकों में मूलत: कोई गंभीर मतभेद नहीं है। इस्लाम में कौम या वतन का सवाल हिजरत, दारुल-हरब तथा दारुल-इस्लाम की बुनियादी धारणाओं से अभिन्न है। हमारे देश में इसका एक बार फैसला तो १९४७ में ही हो चुका। इस्लामी नेताओं और मुस्लिम जनमत ने देश नहीं, बल्कि इस्लाम को तबज्जो दी। तब से इस्लामी चिंतन में तो कुछ नहीं बदला। अत: यदि हम उस फैसले की सीख भुला कर फिर उसी कवायद में लगते हैं तो यह फिर उसी दिशा में जाएगा।
अंबेडकर जी ने बताई कड़वी सच्चाई :-
मुसलमानों में देशभक्त, उदार, मानवतावादी लेखक, कवि या नेता इस्लाम की कमोबेश उपेक्षा कर के ही वैसे हो पाते हैं। गालिब ने भी अपने को आधा मुसलमान ही कहा था। इसीलिए उनकी बातों का असर भी मुस्लिम समुदाय पर नहीं होता। डॉ. भीमराव अंबेडकर की थॉट्स आन पा·िस्तान मुशीर उल हक की इस्लाम इन सेक्यूलर इंडिया जीनत कौसर की इस्लाम एंड नेशनलिज्म अथवा शबीर अहमद व आबिद करीब की द रूट्स ऑफ नेशनलिज्म इन द मुस्लिम वल्र्ड आदि पुस्तकों के अध्ययन से इस कड़वी सच्चाई को समझा जा सकता है।
जिन्ना दूर से इस्लाम से :-
भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में आम मुसलमानों में उदार लेखकों, नेताओं की नहीं चलती। खुद जिन्ना जैसे आधुनिक, सेवाधर्मी, लोकतांत्रिक, तेज-तर्रार नेता भी मुसलमानों के बेताज बादशाह तभी बने जब उन्होंने इस्लामी लफ्फाजी अपनाई। जबकि निजी जीवन में उन पर इस्लाम से कोई लेना-देना न था। उलटे जिन्ना का रहन-सहन, खान-पान, आदि सब कुछ इस्लामी निर्देशों के विपरीत था। जबकि पूरे इस्लामी तरीके से जीने वाले खान अब्दुल गफ्फार खान मुसलमानों के मान्य नेता न हो सके, क्योंकि वे इस्लामी मांगे नहीं कर रहे थे। यह अंतर ध्यान देने योग्य है।
बुखारी ने परंपरा का निर्वाह किया :-
यह उसी परंपरा की कड़ी है जब अपने जमाने के सबसे बड़े मुस्लिम नेता मौलाना शौकत अली ने भारत पर अफगानिस्तान के हमले की सूरत में अफगानिस्तान का साथ देने की घोषणा की थी। तब कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अनेक मुस्लिम महानुभावों से स्वयं पूछा था कि यदि कोई मुस्लिम हमलावर भारत पर हमला कर दे तो वे किस का साथ देंगे? उन्हें संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। उसी प्रसंग में प्रख्यात विदुषी और कांग्रेस अध्यक्ष रही एनी बेसेंटे ने १९२९में नोट किया था, मुसलमान नेता कहते है कि यदि अफगानिस्तान भारत पर हमला करता है तो वे आक्रमणकारी मुस्लिमों का साथ देंगे और उनसे लडऩे वाले हिन्दुओं का कत्ल करेंगे। हम यह जानने के लिए मजबूर हैं कि मुसलमानों का मुख्य लगाव मुस्लिम देशों से है, मातृभूमि से नहीं। - शंकर शरण के संपादित
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